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Wednesday, September 22, 2010

मैं बुनकर जुलाहा

मैं बुनकर जुलाहा हूँ
मुझे रूई दे दो
मैं खुद ही सूत कात लूँगा
कातूंगा, बांटूंगा, बुनुंगा
कपड़े भी मैं खुद बुन लूँगा
बुनुंगा हथकरघे पर
चादर रुपहले
और बनाऊंगा तुम्हारे लिए रत दिन
चादर पीले, कत्थई, लाल, हरे
आरामदेह, मुलायम, सपनों सी
और बटु सूत कि रस्सियाँ भी
मज़बूत-अटूट
खुद सुखी खा, पानी पी लूँगा
पेट पे रस्सी बांध दूंगा
नंगी ज़मीन पे सिकुड़े-सिकुड़े
मए बीबी-बच्चों के रात अँधेरी सो लूँगा
एक पतली चादर ओढ़-ओढ़ कर

मुझे रोज़ी न सही
और रोज़ी का दाम नहीं
काम का लेकिन अंजाम तो दो
कपास दो
मेरे बुनने कि आस तो दो
इक नै आस के बदले मेरी साँस न लो
मेरा करघा, सूत, कपास ना लो
मेरा, मेरे बीबी-बच्चों का आकाश ना लो