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Wednesday, July 28, 2010

मेरा पता

अक्सर ही जब कभी
सड़कों को नापता चलता सायकल पे यूंहीं
निकलता हूँ घर से कुछ दूर ही
अनमना अनजाना सा कुछ सोंचता
रफ़्ता दर रफ़्ता, सायकल की रफ़्तार से
चीजों का पास आकर दूर निकल जाना
मेरा रफ़्तार से बहुत दूर सड़क पे निकल आना
पीछे छोड़ते रास्तों, पगडंडियों के सहारे
ज़िन्दगी की सड़क पर, आगे
चौराहा दर चौराहा, चौराहे पर, फिर
आगे बढ़ निकल जाना

अगल बगल के खामोश किनारों पर
बुत बने पेड़ों की क़तार
पथरीली दीवार, भीख मांगता भिखारी
खड़े सड़क के किनारे, रास्ता तकते
सब आते जाते, बेरफ़्तार, रुके हुए से
मेरी रफ़्तार से दूर जाते, खड़े खड़े बुत बने
छोड़ कर आगे बढ़ता मैं, हर रोज़ बदस्तूर

पीछे छूटती सडकें, दरख़्त, चारदीवारियां,
और छूटता मैं, सबसे ज़्यादा, सबसे आगे
पल-पल घटता
पल-पल रिसता
मौसम की नमी सा उड़ता
पत्तों की तरह सूखता, सुख कर झड़ता
पल-पल, हर पल
पेड़, पगडंडियाँ, रास्ते, चारदीवारियां, भिखारी
अपने पते पर ठीक, सबके सब अपने-अपने रास्ते
बदस्तूर रुके खड़े
मेरी रफ़्तार से रफ़्तार मिलाते, चलते
लेकिन, मैं हर रोज़, वहीँ
लापता, गुम
अपने पते की तालाश में
भटकता, गली दर गली
चौराहे पर रुकता, चलता
पते की तालाश में
अनमना, अनजाना, लापता सा
अपने पते पर ।