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Tuesday, June 21, 2011

सागर की लहरें

सागर की लहरें किनारों से टकराती
बेबाक ठोकर मारती
किनारों को आगोश में ले इक पल को
पल में बिछुड़ दूर सागर में विलीन हो जाती
रेतीले किनारों पर उंगलिओं के निशान छोड़ जाती
और फिर लापरवाह इक दफ़ा, अगली दफ़ा
आलिंगन कर किनारों में समा जाती

यूहीं बेमाने ही टकराती बार-बार, हर बार
सख्त चट्टानों को रेत कर जाती
और हर दफ़ा रेतीले किनारों पर
उंगलिओं के निशान छोड़ आगे बढ़ जाती
और रेत पर उकेरे संदेसे स्नान कर, गोता लगा
डूब-मिट
सागर हो जाते
ख़ुद बेमाने हो
किनारों कर माने बन जाते

Tuesday, July 27, 2010

सागर के तिरछे कोने पर सूरज .

सागर के तिरछे कोने में सूरज
शाम का सूरज और भोर का भी
बुझा जला
उबले अंडे की पीली ज़र्दी
गोल
लाली कुछ कम कम है
लगता है कवी ने कविता की लाल सियाही में सोडा वाटर ज्यादा मिला दिया है
और चित्रकार ने लाल रंग में पानी कुछ ज्यादा मिलाया है
याकि अपने ब्रुशों को पानी में कुछ देर तक डुबोया है

भोर के बाद दिन के साथ
लाली गम हो जाएगी और चमक उठेगी
चकाचौंध-ओझल
शाम ढलने पर
एक बार सूरज फिर लाल होगा
फीका, पनियाला लाल
और दे जाएगा सुकून

सोंच
पनियाते रंग का और गंदली धुंध का भी
एक बार फिर
सुबह तक .