Thursday, July 29, 2010

उधेड़बुन

हर शाम के बाद सवेरा
लेकिन सवेरे के बाद की शाम
और उससे भी काली रात का क्या ?

हर कली का फूल
लेकिन फूल के मुरझाने का क्या ?
हर बीज का अंकुर, अंकुर का पेड़
लेकिन पेड़ के सूख कर गिर जाने का क्या?

हर युध्ध के बाद शोर
शोर के बाद की चुप्पी
लेकिन इस चुप्पी के बाद के शोर
और फिर से चुप्पी का क्या?

अकेली ज़िन्दगी में साथ
लेकिन साथ के बाद अकेली ज़िन्दगी का क्या ?

शाम-सवेरा, कली-फूल, बीज-अंकुर-पेड़, हरे पत्ते- पीले पत्ते-झाड़ते पत्ते, शोर-चुप्पी, साथ-अकेलापन

क्या है ये ?
एक मकडजाल या उधेड़बुन ?

अँधेरे, ख़ामोशी और अकेलेपन के बीच
फंसा इंसान ।

Wednesday, July 28, 2010

किसने दिखाए सपनें ?

किसने दिखाए सपनें ?
स्वप्नील, सुनहरे, सुन्दर
डरावने, जानलेवा, खूंखार, दमघोटू
क्या तुम्हे खेद है?
सपनों के बदसूरत होने का
सपनों के टूट जाने पर खेद नहीं तुम्हे?
और अगर है भी तो क्या? और क्यूँ?
किसने दिखाए सपने तुम्हे?
पूछता हूँ किसने दिखाए तुम्हे, सपने ?
तो क्यूँ है मातम, सन्नाटा, क्रंदन ?
सपनें सच हो तो अपने
और टूट जाएँ तो पराए
पूछता हूँ किसने देखे सपनें?
उठो और जिओ, हिम्मत है तो
सपनों से आगे उस सच को
जो डरावनी है शायद
लेकिन जिंदा है ।

सपनें देखने के लिए खेद

सपनें बड़े बदतमीज़ होते हैं
ना वक़्त की कद्र
ना जगह, ना संजोग
ना अवसर की परवाह

बेपरवाह सपनें कभी भी
कहीं भी, एक अप्रत्याशित
अपरिचित सेल्समैन की तरह
काल-बेल दबा
डिंग-डोंग की तान छेड़
घुस जाते हैं
पहले सीधे दिमाग
और फिर सरकते-सरकते
क़तरा-क़तरा दिल में

ख़ुद को अपना, क़रीबी, शुभेक्षक बता
लेन-देन का सिलसिला शुरु करते
हम जज़्बात बेंचते और सपने ख़रीदते
जज़्बाती हो जाते
फिर और सपनें
सपनें, सपनें, सपनें
स्वप्नील, सुन्दर, लुभावने, घुमावदार, सीढ़ीदार,
सांप जैसे, सात सरों वाले फुफकारते शेषनाग जैसे
सांप-सीढ़ी का खेल
किस्मत के सांप डंसते
डरावने सपनों से डराते
और रोमांच की सीढियाँ ऊपर जाती
सपनें दिखाती, शेखचिल्ली बनाती
और हम सपनों को फुग्गे सा फुलाते
हांफ-हांफ के फुलाते
फुलाते-फुलाते भड़ाम
या फिर छेद वाले रब्बरदार फुग्गे को
फुलाते जाते हांफते जाते, फुलाते जाते
हांफते, मरते, सपनें देखते
वक़्त आता जब फुग्गे आदत बन जाते
फिर बिना काल-बेल दबाए
फुग्गे वाले आते जाते, अन्दर बाहर, ऊपर-निचे
नींद तोड़, सो जाने को मजबूर करते
और सपनें सो कर हम जब घड़ी पर नज़र करते
और नौकरी पहुँचने में हुई देरी का एहसास कर
सपनों को, नांक पूछे टिश्यु पेपर की तरह
ममोड़ कर डस्ट-बिन में फेंक
भाग-भाग कर भाग-दौड़ में लिप्त हो जाते
और बॉस की ताज़ी झिडकी सुन
सपनों पर खेद जताते और सपनें ना देखने का सपना देख
जुंत जाते
रोज़ी, रोटी, कपड़ा, मकान और जोरू के सपनें में
मस्त सुबह से शाम
और फिर सारी रात
रोज़ सपनें देखते और सपनों पे खेद जताते
काट देते ज़िन्दगी
फिर सपनों की तरह भुला दिए जाते
और श्रधान्जली के खेदमय पुष्पमाल से
हमेशा के लिए अकेले सपनें बुनने को दफ़्न कर दिए जाते
और सपनें
आपके बगल में लेटे खेद जताते
आपके साथ वहीँ दफ़्न हो जाते
हमेशा के लिए

अकेले कमरे में मैं

शाम यूँहीं अपने बुझे कमरे में
बुझा सा मैं, जलने को आंखें मूँद
कुछ सोंचता
आंखें मूंदे अपनी दुनिया को सोंचता
बुझे-बुझे कमरे में
बुझा-बुझा, किए आंखें बंद
सोंचता
बंद आँखों के भीतर और बाहर
उभरती, घूमती आकृतियाँ
कुछ बिलकुल साफ़
कुछ हल्की, धुन्धल्की और कुछ गौण
ज़्यादातर पहचानी
कुछ पहचानी पर अनजानी
आस पास घूमते मेरे परिचित, मेरे दोस्त
अपनी-अपनी सीमाओं की परिधि से बंधे,
सीमित
घूमते, चकराते, मेरे चारो ओर
चकराता मैं
भावनाओं के घुमाव के साथ भंवराता
भावना शुन्य सा घूमता, चकराता

आँखें खोलता फिर मूँद लेता
मूँद लेता आँखें अपनी,
अपने चारों ओर की सच्चाई से
और फिर वही आकृतियाँ
घूमती, इठलाती, चकराती
मेरे आँखों के भीतर-बाहर
बिना दस्तक आती-जाती

ऐसा अक्सर ही होता है
जब अकेला होता हूँ मैं
करने को इसी अकेलेपन को
करता मैं आंखें बंद
और जब खोल बैठता हूँ आंखें
तो और भी अकेले होता हूँ

ये आँखों का खोलना बंद करना, ये सिलसिला
गर ख़त्म हो जाता तो कितना अच्छा होता
मेरे चाहने से सब ख़त्म हो जाए
तो सो सकूं मैं खुली आंखें
सुकून के साथ
और जाग भी सकूं मैं खुली आँख
और न पाले फिर ख़्वाब कोई
भीतर-बाहर, झूठा-सच्चा
और ना हो कोई ख़्वाब झूठा
और जी सकूं मैं
सच्चाई के साथ
अपने आस पास की सच्चाई
ऊपर निचे और दरमियाँ की भी
मेरे होने की और ना होने की भी, सच
मेरा और मेरे कमरे का अकेलापन
जो सच भी है और मेरे साथ भी

तुम्हारी याद में

एक ख़्वाब देखा है मैंने
साथ-साथ, मैं और तुम
सीली काई लगी दीवार से टेक लगाए
हाथों को क़रीब-क़रीब रखे
बिना बात बिलकुल शांत, चुपचाप
चुप्पी समेटे
चाहता हूँ
कुछ देर और यूँहीं
चुपचाप रहूं और
समेट लूँ सारी ख़ामोशी तेरी
तेरे खामोश दिल की धड़कन
तेरे खामोश दिल की आवाज़
और ख़ामोशी से
चला जाऊं कहीं
जहाँ रहूं मैं, सिर्फ मैं और
बातें करती तुम्हारी वो ख़ामोशी
तुम्हारी वही खामोश धड़कन
और साथ रहे सिर्फ
तेरे खामोश दिल की आवाज़
हमेशा
मेरे साथ तुम, सिर्फ तुम

अनाम कविता

टकराना
दोनों की आँखों का
अंधियारे की रौशनी में
टकराना, कुछ देर आपस में, खामोश
बारी-बारी, साथ-साथ
ढूँढना
एक दुसरे की नज़रों में
कुछ, सब कुछ
क्या कुछ?

ना मिल पाना
ढूंढती आँखों के सिवा,
कुछ भी,
एक ख़ालीपन,
कन्फ्यूजन, ना ढूंढ पाने का
उसे चाहती है
दोनों की आंखें
एक दीवार
जिसे देख नहीं पाती
दोनों की आंखें

मेरा पता

अक्सर ही जब कभी
सड़कों को नापता चलता सायकल पे यूंहीं
निकलता हूँ घर से कुछ दूर ही
अनमना अनजाना सा कुछ सोंचता
रफ़्ता दर रफ़्ता, सायकल की रफ़्तार से
चीजों का पास आकर दूर निकल जाना
मेरा रफ़्तार से बहुत दूर सड़क पे निकल आना
पीछे छोड़ते रास्तों, पगडंडियों के सहारे
ज़िन्दगी की सड़क पर, आगे
चौराहा दर चौराहा, चौराहे पर, फिर
आगे बढ़ निकल जाना

अगल बगल के खामोश किनारों पर
बुत बने पेड़ों की क़तार
पथरीली दीवार, भीख मांगता भिखारी
खड़े सड़क के किनारे, रास्ता तकते
सब आते जाते, बेरफ़्तार, रुके हुए से
मेरी रफ़्तार से दूर जाते, खड़े खड़े बुत बने
छोड़ कर आगे बढ़ता मैं, हर रोज़ बदस्तूर

पीछे छूटती सडकें, दरख़्त, चारदीवारियां,
और छूटता मैं, सबसे ज़्यादा, सबसे आगे
पल-पल घटता
पल-पल रिसता
मौसम की नमी सा उड़ता
पत्तों की तरह सूखता, सुख कर झड़ता
पल-पल, हर पल
पेड़, पगडंडियाँ, रास्ते, चारदीवारियां, भिखारी
अपने पते पर ठीक, सबके सब अपने-अपने रास्ते
बदस्तूर रुके खड़े
मेरी रफ़्तार से रफ़्तार मिलाते, चलते
लेकिन, मैं हर रोज़, वहीँ
लापता, गुम
अपने पते की तालाश में
भटकता, गली दर गली
चौराहे पर रुकता, चलता
पते की तालाश में
अनमना, अनजाना, लापता सा
अपने पते पर ।