Saturday, December 29, 2012

एक, दो, तीन कविताएँ


एक- 

मौन हूँ  
मुंह में खंजर से तेज़ जुबां  रखा है 
आँखों में जुर्रत 
दिलों में तूफ़ान छुपा रखा है 

दो- 

ज़रुरत हैं आंच दिखाने की 
ताप-ताप कर 
खून को खून बनाने की 

तीन-

मुंसिफी न काम आएगी 
न फिज़ा न ये अदा 
और न अंदाज़े-बयाँ काम आएगी 
काम आएगी तो सिर्फ जुर्रते-जवानी आएगी 
सर्द पानी सी जिंदगानी तो पानी के भाव बिक जाएगी 
बाज़ारों में नज़र आएगी  
बाजारू कहलाएगी 

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