Monday, June 11, 2012

रो लेने दो

ज़ालिम बाढ़ जब आती है
सब कुछ बहा ले जाती है
बाँध ढाती है

किनारों को दूर कहीं पीछे छोड़
सारे बंधन तोड़ जाती है

उमड़-घुमड़, इधर-उधर डोलाती है
मातम बरसाती हैं
हमेशा को ज़ख्म दे जाती है
निशानी छोड़ जाती है

दोस्त मेरे
इस लिए इस दफ़ा
रोको नहीं
गले लग 
जी भर के रो लेने दो
अश्कों से मेरे रूह को मुझे धोने दो

इसे फेसबुक पे भी पढ़ा जा सकता है 

Saturday, June 9, 2012

लाल सलाम परचम लाल

ये कहानी है एक सफ़ेद चादर की
जिसके नीचे फलते थे इन्सां
खेलते थे बच्चे
चहकती थी चिड़िया
खिलती थी कलियाँ
उड़ती थी खुशबु सब के लिए

वोही सफेदी थी पहचान उनकी

फिर इक दिन हुआ क़त्ल
बलात्कार
ज़ुल्म-ओ-अत्याचार
इन्सां के इन्सां से अव्वल-अफज़ल बनते

इन्सां बटे
और बांटी  फिर  जंगल
ज़मीन, खेत, खलिहान
और पहचान

कारख़ाने बने, भट्टियाँ जली
पसीना बहा, जिस्म जला, हड्डियाँ गली

वह दिन भी आया
जब सफेदी बटी
और तकसीम हुए माओं के आँचल
और वो सफ़ेद चादर का इक टुकड़ा
जो बूढी अम्मां का आँचल बना,
बाप का तकिया बना,
वैध का पट्टी-मलहम भी बना

और ज़ख्मों का लहु पोंछ-पोंछ कर
हो गया लाल
और हाँथ भी अम्मा का रंग गया
हो गया अपने ही बच्चों के खूं से लाल

और आख़िर बना लिया उसे
उठ्ठा लिया मजलूमों ने
परचम लाल

और फिर ढ़ोल बजा, नक्कारा पिटा
नारा बना लाल सलाम !
मजदूरों के  नाम, माओं के नाम,
कोख में पलते बच्चों के नाम

बढ़ गए खोने को जंजीरें
सब के सब
होने लगे एक रंग
मजदूरों के नाम, मजलूमों के नाम
लाल सलाम परचम लाल

इसे फेसबुक पे भी पढ़ा जा सकता है 

Thursday, June 7, 2012

इंतज़ार - 3

तुमसे  मिलने की उम्मीद
हर दफ़ा नाउम्मीद कर जाती है
दिल दुखा जाती हैं
हिला जाती है

नाउम्मीद नहीं हूँ आज मैं ज़रा भी
मुझे ख़बर है
तुम नहीं आओगी

इसे फेसबुक पे भी पढ़ा जा सकता है 

Tuesday, June 5, 2012

इन्सां का रंग

इन्सां का  रंग कच्चे रंग का होता है
थोड़ा क़रीब आते ही पसीजता है
पसीजते ही रंग छोड़ता है

रंग जाता है
ज़मीन-ओ- आसमान को

खुद बदरंग हो
रंग देता है अपने ही रंग में सबको
हमेशा

इसे फेसबुक पे भी पढ़ा जा सकता है 

Monday, June 4, 2012

तितली

इन्सां तितली के मानिंद
उड़ते मचलते
ख़ूबसूरत रंगों की  रंगोली ओढ़े
आकर्षित, ललचाते, लुभाते

सबके सब तितली के दीवाने
पकड़ते, प्रेम जताते, सहलाते
दूसरों से बचाते 
रंग चुराते
खुद तितली को बेरंग कर जाते
आकर्षण उड़ा ले जाते

जब कभी खो जाने के भ्रम में
खुद से बांधने के प्रयास में
तितली को रेशमी डोर के छोर से बांधते
उसकी उड़ान पे लगाम कसते
उर्जा निचोड़
छोड़ देते उसको एक छोटी सी उड़ान को तरसते

अधिकार जमाते, मिल्कत बनाते जब भी
बंद करते उसको रत्न-जडित संदली ताबूत में
अपने-आप में खुश होते
सांस-सांस को तरसते
हांफ-हांफ कर मरता छोड़ 
मर जाने देते
तितली को

फिर क़ैद हो जाते खुद ही
एक आजीवन कारावास में
शोक और खालीपन के बीच
हत्या और हत्या के प्रयास में




इसको  फेसबुक  पे भी पढ़ा जा सकता है 



Sunday, June 3, 2012

इंतज़ार- 2

इंतज़ार दुश्मन सा

लेकिन दुश्मन तो बे-रोक टोक आता जाता है 
बेवजह भी हर वक़्त नज़र आता है 
मिल जाता है 
हर मोड़ पर भिड़ जाता है 
यार से ज्यादा कहीं 
तो अब दुश्मन भाता है 
कम से कम रोजाना मिलकर तो जाता है 
दुश्मनी तो निभाता है 
यार तो अपना बड़ा इंतज़ार कराता है 
यारी भी नहीं निभाता है