Saturday, December 29, 2012

पानी

एक-

पानी जब अपनी ज़ात दिखाता है 
तो पसीना छुड़ाता है 
पैंट गीली कर
हवा टाईट कर
लुटिया डुबो जाता है  
अपना अंजाम खुद बना जाता है 
एक नया धाम बना जाता है 

दो-

पानी कुछ नहीं बोलता 
चुप रहता हैं 
गुनगुनाता है बर्तन के भीतर 
जब उबलता है तो 
मचल जाता है 
उफन जाता है 
भाप बन जाता है 
हलचल मचा जाता है 
कोने कोने में भर जाता है 
बरस जाता है 
इमां बना जाता है 

एक, दो, तीन कविताएँ


एक- 

मौन हूँ  
मुंह में खंजर से तेज़ जुबां  रखा है 
आँखों में जुर्रत 
दिलों में तूफ़ान छुपा रखा है 

दो- 

ज़रुरत हैं आंच दिखाने की 
ताप-ताप कर 
खून को खून बनाने की 

तीन-

मुंसिफी न काम आएगी 
न फिज़ा न ये अदा 
और न अंदाज़े-बयाँ काम आएगी 
काम आएगी तो सिर्फ जुर्रते-जवानी आएगी 
सर्द पानी सी जिंदगानी तो पानी के भाव बिक जाएगी 
बाज़ारों में नज़र आएगी  
बाजारू कहलाएगी 

Tuesday, December 11, 2012

नाम

एक नाम उधारी का 
दे सको तो दो 
फ़क़त एक नाम 
जिस से नफ़रत कोई कर ना सके 
बदला कोई ले ना सके 
हत्या कोई कर ना सके 
एक नाम 
फ़क़त एक नाम उधारी का 

Thursday, August 2, 2012

तोहफ़ा इक वादे का


क्या इस राखी के दिन 
हम भाई अपनी बहना की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी लेंगे ?
हाँ सुरक्षा !
सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक सुरक्षा

अगर हाँ ?
तो दें उसे तोहफ़ा इक वादे का 

इज्ज़त, स्वमान, सामाजिक और आर्थिक आज़ादी, बराबरी का वादा 
वादा यह भी कि
बराबरी हो अधिकारों कि 
अवसर की 
रोज़ी, रोटी, कपडा, संपत्ति की
चयन की 
अमन की 
घर में और घर के बाहर भी 


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Tuesday, July 17, 2012

तेरे नयनों के नीर

तेरे नयनों के नीर 
बरसा गए सवालों के तीर 

असमंजस में हूँ 
ख़ुद के ज़ख्मों को देखूं 
या तेरे नयन पोंछूं 

या खुला छोड़ दूँ बहने उन्हें 
शायद एक दिन दरिया बन 
सैलाब लाए 
पानी, नमक, मवाद
को खुद में समा
साथ बहा ले जाए 
कोरा कर जाए फिर से इक दफ़ा


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Wednesday, July 4, 2012

मैं तो आज भीज गया

मैं तो आज भीज गया 
तेरी बारिश में आज भीज गया
तेरे आगोश में समा के मैं तो पसीज गया 
मन का मारा मरीज़ गया 

दूर बहुत ही  मैं दूर जितना गया 
तेरे करीब गया 
मैं तेरे और तू मेरे नसीब गया 
बेतरतीब सा कुछ, अबूझ-अजीब गया 

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Monday, June 11, 2012

रो लेने दो

ज़ालिम बाढ़ जब आती है
सब कुछ बहा ले जाती है
बाँध ढाती है

किनारों को दूर कहीं पीछे छोड़
सारे बंधन तोड़ जाती है

उमड़-घुमड़, इधर-उधर डोलाती है
मातम बरसाती हैं
हमेशा को ज़ख्म दे जाती है
निशानी छोड़ जाती है

दोस्त मेरे
इस लिए इस दफ़ा
रोको नहीं
गले लग 
जी भर के रो लेने दो
अश्कों से मेरे रूह को मुझे धोने दो

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Saturday, June 9, 2012

लाल सलाम परचम लाल

ये कहानी है एक सफ़ेद चादर की
जिसके नीचे फलते थे इन्सां
खेलते थे बच्चे
चहकती थी चिड़िया
खिलती थी कलियाँ
उड़ती थी खुशबु सब के लिए

वोही सफेदी थी पहचान उनकी

फिर इक दिन हुआ क़त्ल
बलात्कार
ज़ुल्म-ओ-अत्याचार
इन्सां के इन्सां से अव्वल-अफज़ल बनते

इन्सां बटे
और बांटी  फिर  जंगल
ज़मीन, खेत, खलिहान
और पहचान

कारख़ाने बने, भट्टियाँ जली
पसीना बहा, जिस्म जला, हड्डियाँ गली

वह दिन भी आया
जब सफेदी बटी
और तकसीम हुए माओं के आँचल
और वो सफ़ेद चादर का इक टुकड़ा
जो बूढी अम्मां का आँचल बना,
बाप का तकिया बना,
वैध का पट्टी-मलहम भी बना

और ज़ख्मों का लहु पोंछ-पोंछ कर
हो गया लाल
और हाँथ भी अम्मा का रंग गया
हो गया अपने ही बच्चों के खूं से लाल

और आख़िर बना लिया उसे
उठ्ठा लिया मजलूमों ने
परचम लाल

और फिर ढ़ोल बजा, नक्कारा पिटा
नारा बना लाल सलाम !
मजदूरों के  नाम, माओं के नाम,
कोख में पलते बच्चों के नाम

बढ़ गए खोने को जंजीरें
सब के सब
होने लगे एक रंग
मजदूरों के नाम, मजलूमों के नाम
लाल सलाम परचम लाल

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Thursday, June 7, 2012

इंतज़ार - 3

तुमसे  मिलने की उम्मीद
हर दफ़ा नाउम्मीद कर जाती है
दिल दुखा जाती हैं
हिला जाती है

नाउम्मीद नहीं हूँ आज मैं ज़रा भी
मुझे ख़बर है
तुम नहीं आओगी

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Tuesday, June 5, 2012

इन्सां का रंग

इन्सां का  रंग कच्चे रंग का होता है
थोड़ा क़रीब आते ही पसीजता है
पसीजते ही रंग छोड़ता है

रंग जाता है
ज़मीन-ओ- आसमान को

खुद बदरंग हो
रंग देता है अपने ही रंग में सबको
हमेशा

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Monday, June 4, 2012

तितली

इन्सां तितली के मानिंद
उड़ते मचलते
ख़ूबसूरत रंगों की  रंगोली ओढ़े
आकर्षित, ललचाते, लुभाते

सबके सब तितली के दीवाने
पकड़ते, प्रेम जताते, सहलाते
दूसरों से बचाते 
रंग चुराते
खुद तितली को बेरंग कर जाते
आकर्षण उड़ा ले जाते

जब कभी खो जाने के भ्रम में
खुद से बांधने के प्रयास में
तितली को रेशमी डोर के छोर से बांधते
उसकी उड़ान पे लगाम कसते
उर्जा निचोड़
छोड़ देते उसको एक छोटी सी उड़ान को तरसते

अधिकार जमाते, मिल्कत बनाते जब भी
बंद करते उसको रत्न-जडित संदली ताबूत में
अपने-आप में खुश होते
सांस-सांस को तरसते
हांफ-हांफ कर मरता छोड़ 
मर जाने देते
तितली को

फिर क़ैद हो जाते खुद ही
एक आजीवन कारावास में
शोक और खालीपन के बीच
हत्या और हत्या के प्रयास में




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Sunday, June 3, 2012

इंतज़ार- 2

इंतज़ार दुश्मन सा

लेकिन दुश्मन तो बे-रोक टोक आता जाता है 
बेवजह भी हर वक़्त नज़र आता है 
मिल जाता है 
हर मोड़ पर भिड़ जाता है 
यार से ज्यादा कहीं 
तो अब दुश्मन भाता है 
कम से कम रोजाना मिलकर तो जाता है 
दुश्मनी तो निभाता है 
यार तो अपना बड़ा इंतज़ार कराता है 
यारी भी नहीं निभाता है 

Thursday, May 31, 2012

इंतज़ार- 1


इंतज़ार
उसके संदेसे का हर बार 
कमज़ोर कर जाता है 

अब तो बस आखरी दफा  
दिलो दिमाग में बस जाएँ इस दफ़ा
अगली बार कहीं जाए तो साथ जाए 
और उसकी याद न रुलाए 

चलो इक बार फिर सही 
तकिए पे सर रख याद कर 
उसके बासी संदेसे पढ़ ताज़ा हो जाएँ 
आँखें मूँद गहरी नींद सो जाएँ 
शायद अगली सुबह 
आँख खुले और वो आए  

Saturday, May 26, 2012

आइना झूट नहीं बोलता


कहते तो ये भी हैं 
कि आइना झूट नहीं बोलता 
फिर पिछली दफ़ा
क्यूँ नज़र चुरा गया मुझसे ?
आइना दिखा गया मुझे  

Friday, May 25, 2012

उलझन ?!

एक
अजीब है न शायद 
कि जिसे सबसे ज्यादा जाना
वो था इक अफसाना 

दो 
यूँ कहना की मैंने उसे जाना नहीं 
समझा नहीं 
माना नहीं 
क्या इनका कोइ पैमाना नहीं 

तीन
वो यूँही आया
और गुज़र गया इक सफ़र सा 
इक नज़र में, चंद पहर में
कोहरे में ढके सहर सा 
सच ! गुज़र गया 

चार 
कहते हैं आईने में जो दिखता है 
करीब से दिखता है 
पर आइना जो दिखाता है बहुत दूर का दिखाता है 
गूढ़ सा  दिखाता है 

पांच
पात्रों के मुखौटे में 
मंच पर हर शख्श ओझल 
नाटक ख़त्म होने का इंतज़ार 
और ज़रा उनसे भी हो जाए आँखें चार 
फिर पात्र-परिचय, आचार-व्यवहार 
और खुल कर आए नेपथ्य का संसार 
तब शायद बुझ पड़े कहानी का सार 

Sunday, May 20, 2012

आँखें पनिया के रह गई


आज उसको देख कर
दिल फिर उमड़ा
आँखें पनिया के रह गई

डॉक्टर ने बताया 
लाइफ इस्टाइल है 
पोल्लुशन है 
आँखों में सूखा है 

हुं! 

दिल में तो बाढ़ है
फिर भला आँखों में आकाल है क्यूँ ?



Wednesday, May 2, 2012

सब माल है, माया है- २

शुक्रवार की बात है
बड़े दिनों बाद फिल्म देखने की हसरत में
पहुंचे एक बार फिर से माल में, सपत्नी
टाइम काटने और बोरियत दूर करने की कोशिश में घुसे
टाइम-आउट में फिर से

गर्दन घुमाते, नज़र फ़िराते शेल्फ दर शेल्फ
रुकना था, सो रुके
फिलोसोफी के शेल्फ के सामने
बेस्ट-सेलर किताबों की क़तार में ओशोरामदेवहिटलर 
और मनु भी 
मनु को देख, अनिश्चित ही हाथ में लेते हुएविचारते
ख़याल आया
हुज़ूर को तो शायद राजनीती के बेस्ट-सेलर खाने में होना था
इन्हीं की तो चली है, और चलती है
गाँव से शहर
सड़क से संसद तक

जाते-जाते
एक पहचानी शक्ल को फिक्शन के खाने में देख
एक पल को ठहरा, देखा
बाबा मार्क्स?!
सोचा किस उल्लू के पट्ठे ने यहाँ रखा है ?

फिल्म का टाइम हो आया था
सो बाबा मार्क्स को
टाइम-आउट के हवाले कर
गुम हो गए सिनेमा हॉल के गलियारे में
फिक्शन देखने, कहानी देखने

Saturday, April 28, 2012

सब माल है, माया है- १



अभी कुछ दिनों पहले की बात है

इक शाम बंगलुरु के अर्ध-विक्सित से रिहायशी इलाके के

रिलायंस टाइम-आउट में

जग-मग बिजली में नहाई

किताबों के शेल्फ पे

एक से साथ एक मुफ्त का अदभुत तमाशा

मनु के साथ मार्क्स फ्री

मनमोहन के साथ अन्ना फ्री

बुश के साथ फिदेल और शावेज़ फ्री

और बोनस में माल फ्री यानि मेम्बरशिप फ्री

है न अदभुत ?!

फ्यूज़न है भाई

सब माल है, माया है

Monday, April 23, 2012

काला टीका


पहली बार हॉस्टल जाते वक़्त

चौदह साल की उम्र, दोपहर का वक़्त और ट्रेन का सफ़र



अलमुनियम की हांड़ी की कालिख के काजल का टीका

मल दिया था बाजी ने बाजु पर और

अम्मी ने हर बला से बचे रहने की दुआ के साथ

विदा कर दिया था ज़िन्दगी की डगर



अगली ही सुबह

क्लास जाने के होड़ में

होस्टल के तेज़ शावर और रेक्सोना के झाग के साथ

मिट कर बह गया काजल का टीका

और बह चला मैं भी



आज इतने बरसों बाद

वो ओझल काला टीका

जज़्ब हैं कहीं अन्दर

अन्दर, गाढ़ा और चट्टान सा

जिस्मों-जान में

अपनी पूरी तासीर के साथ



सच-मुच

अब तक आगे ही तो बढ़ा हूँ मैं

Thursday, April 19, 2012

લાંબી જીભ [लम्बी ज़बान]



માં- શું ભણ્યું શાળા માં આજે ?
[आज स्कूल में क्या पढ़े ?]

બાળક-  મેડમે ધાર્મિક સ્થળો વિષયે કશું વાંચતા હતા
[मैडम ने धार्मिक स्थलों के बारे में कुछ पढ़ कर सुनाया]

માં-ક્લાસમાં કશું ખબર પડે છે કે નહિ ?
[ क्लास में कुछ समझ में आता है भी या नहीं ?]

બાળક- આજે સેજ ઓછું ખબર પડી
[आज थोडा कम समझ में आया]

માં- કેમ ?
[क्यूँ ? ]

બાળક- ખબર નહિ કેમ, આજે મેડમ  જલ્દી માં હતા, જયારે આરામ થી ભાનાયે છે ત્યારે બધું ખબર પડે છે
[पता नहीं क्यूँ आज मैडम कुछ जल्दी में थी, जब आराम से पढ़ाती हैं तो सब समझ में आता है]

માં- સારું! ક્યા-ક્યા ધાર્મિક સ્થળો વિષયે  મેડમે  શું  ભાનાયું?  જરાક મને પણ માલુમ પડે ના કેટલી ખબર પડી ?
[अच्छा ! किन-किन धार्मिक स्थलों के बारे में क्या पढ़ाया? थोडा मुझे भी तो मालुम चले तुम्हें कितना समझ में आया?]

બાળક- મસ્જીદો અને મકબરા બાબત કશું બોલતા હતા
[मस्जिदों और मकबरे के बारे में कुछ बोल रही थीं]

માં- શું બોલતા હતા?
[क्या बोल रही थीं ?]

બાળક- ભૂલી ગયો, માં ! આ મસ્જીદ અને મકબરા એટલે શું?
[भूल गया ! माँ ! मस्जिद और मकबरा मतलब क्या ?]

માં- કેમ? મેડમે નથી ભાનાયું?
[क्यूँ? मैडम ने नहीं पढ़ाया ?]

બાળક- બતાયુ ને, કિ ખબર નહિ પડી
[आपको बताया ना ! समझ में नहीं आया]

માં- મંદિર જેવું હોયે છે પણ ત્યાં  હિંદુ નહિ મુસલમાનો પૂજા કરે છે
[मंदिर जैसा ही होता है, लेकिन वहां हिन्दू नहीं मुस्लमान पूजा करते हैं]

બાળક- મુસલમાન શું હોયે છે ?
[मुसलमान क्या होता है ?]

માં- પેલ્લી બાજુ રહે છે ના તેજ
[उस तरफ रहते हैं ना, वोही]

બાળક- આપણી બાજુ એક પણ મસ્જીદો કે મકબરા કેમ નથી ? અને આપણી સોસાયટી માં મુસલમાનો કેમ નહિ રહેતા ?
[अपनी ओर एक भी मस्जिद क्यूँ नहीं? और अपने सोसायटी में मुसलमान क्यूँ नहीं रहते?]

માં- કેમ ? અહયા કેમ હોવી જોયીયે મસ્જીદો અને મુસલમાનો ?
[क्यूँ? यहाँ क्यूँ होना चाहिए मस्जिद और मुसलमान?]

બાળક- એમજ !
[ऐसे ही !]

માં- મને શું ખબર ! પણ પપ્પા થી ના પૂછતો
[मुझे क्या पता ! लेकिन पापा से नहीं पूछना]

બાળક- કેમ?
[क्यूँ?]

માં- ચુપ કર હવે ! તમારી  જીભ ઘણી લાંબી થઇ ગયી છે
बस चुप करो ! तुम्हारी ज़बान बहुत लम्बी हो गयी है]

Wednesday, April 18, 2012

किस्मत

पिछले सावन की ही तरह इस बार भी
बगीचे के आम पर फिर से
हरी-हरी मुलायम कोपलें आईं
इस बार कोपलों के साथ
कुछ फूल भी आए
कुछ सफ़ेद, कुछ हल्के ज़र्द

फूलों पर भंवरें-मधुमक्खियाँ भन-भनाने लगी
और माली कहने लगा
किस्मत अच्छी रही तो
बादलों के फूटते ही
एक-आध फल भी नसीब हो जाए शायद इस मौसम
आमरस न सही मगर चटनी तो चखाएगी ही

पता नहीं क्यूँ ?
कल से ही माली ने आम की चौकसी बढ़ा दी है
और हमें भी उस पेड़ पर खेलने की मनाही हो गयी है
उसके गिर्द काँटों का बाड़ा बना दिया है उसने
और एक लकड़ी के तख्तों का फाटक लगाया है
सिर्फ अपने आने-जाने के लिए

माली के कहने पर
गाँव-मोहल्ले की महिलाओं ने मिल कर न जाने क्यूँ
उसके तनों पर लाल-पीले डोरों का ताना-बना गढ़ा है
पता नहीं क्यूँ ?

लेकिन कुछ भी कहो
आम की तो किस्मत ही खुल गई है
है ना?

Monday, April 2, 2012

सब बिकता है

जो बिकता है वो टिकता है
यहाँ नायक बिकता है खलनायक बिकता है
राजा बिकता है राजनेता बिकता है
बहन बिकती है बेटा बिकता है
गाँधी का बन्दर और अन्ना का टोप बिकता है
तस्वीर बिकती है, तुलसी और मीर बिकता है
पशुओं का चारा बिकता है
पेटीकोट का नाड़ा बिकता है
खेल बिकता है खेलवय्या बिकता है
तेल बिकता है, रेलम-पेल बिकता है
राम बिकता है हनुमान बिकता है
गीता और क़ुरान बिकता है
हिट बिकता है फ्लॉप बिकता है
पॉप बिकता है, मन्त्रों का जाप बिकता है
हर शय, हर एक किरदार बिकता है
यहाँ तो खरीदार भी बिकता है
बार-बार बिकता है
राइट बिकता है, लेफ्ट और सेन्टर भी बिकता है
सब बिकता है

जय हो ! तेरी, अधिनायक
जय हो !
अब तो तू भी बिकता है
तभी तो पांच साल टिकता है