Monday, November 29, 2010

हाथी चला बाज़ार में

बिच्छू मरते दम तक डंक मारेगा
संत डूबते बिच्छू को हर बार किनारे पर लाएगा
चालाक लोमड़ी काले कौए की काएं-काएं को मीठी तान बताएगा
पेड़ का कौआ चालाक लोमड़ी की बातों में आएगा
चोंच खोल कर अपनी रोटी उस के भेंट कर जाएगा

और जब भी कभी मस्तन हाथी अपनी राह चलेगा
टेढ़ी पूंछ वाला कुत्ता भोंकेगा, भों-भों की खड़ताल बजाएगा

कबिरा भी बाज़ार में खड़ा-खड़ा एकतारे की तार छेड़ेगा
हथकरघे पे झीनी-मिनी चादर बनाएगा
फिर इक दिन उसी बाज़ार में मर जाएगा
बाजारू लोग उसकी बोली लगायेंगे
अपना अपना माल बताएंगे
लड़ते-कटते खुद अर्थी-कब्र चढ़ जाएँगे

लेकिन फिर भी बिच्छू डंक मारेगा,
संत बिच्छू की जान बचाएगा
कौआ लोमड़ी की बातों में आएगा
लोमड़ी मज़े से दावत उडाएगा
कुत्ता भौं-भौं कर पूंछ हिलाएगा
और हाथी अकेले ही जानिबे मंजिल को चला जाएगा और
कभी न कभी तो अकेले ही सड़क पार कर पाएगा
पगडण्डी छोड़ जाएगा

Thursday, November 25, 2010

बीड़ी की लाल आँखें

कुचल दो मसल दो उसको
पैरों से मसल दो
ऐसा मैं अधूरी जलती हुई बीड़ी के लिए कहता फिरता हूँ
ख़ुद से नहीं अपने दोस्तों से
सुन कर भी निष्क्रिय से मेरे दोस्त
छोड़ देते हैं उसे वैसे ही फर्श पर
बीचो-बीच कमरे में
और छोड़ देते हैं मुझे निरुत्तरित

प्रशनों की श्रृंखला की कड़िया गिनता
उनकी करुणाती अरुणमई आँखों में
उस अधजली बीड़ी की लाली को देख
एक बार प्रशनों में घिर
उत्तर से परे बंध जाता
ऐसे ही क्यूँ छोड़ दिया, जलता उसे?

उसकी झपकती आँखें झपक कर
बोल जाती
छोड़ दिया उसे जीने को आख़िर के कुछ क्षण
जाने दिया उसे अपनी जीवन की राह पर
सिसकते, घिसटते, विकलांग उसे
मौत और ज़िन्दगी के अंतराल के लिए
छोड़ दिया

ऐसा अक्सर ही बिना सोंचे कहता हूँ मैं
कहकर निरुत्तर सा सोंचता हूँ मैं
और
बीड़ी की जलती, धुआं उगलती लाल-लाल आँखें
चुभने सी लगती है और गड़ती चली जाती है
भीतर, बहुत भीतर
एहसास से बंधता मैं
महसूस करता
बीड़ी का इस तरह आख़िर में जलना
लाल हो जाना
उसकी धीमी लौ का
धडकनों सा धड़कना, धधकना
पल-पल ठहरना
फिर चमकना अँधेरे कमरे के अँधेरे से कोने में
रह-रह कर उसकी सांसों का उखड़ना
और उड़ना धुंए के साथ
घुटना, घटना
बुझने के इंतज़ार में, पल-पल प्रतिपल
साँझ की लाली में रात की कलि सा मिलना
एक लम्बी साँस के साथ
आख़िरकार उसका बुझ जाना
और फिर सीमित हो राख हो जाना

उसकी जलती आँखों के बुझने पर
अनायास ही मेरे अन्दर के खौफ़ का भी बुझ जाना
और जला जाना मेरे अन्दर के उलझे अस्पष्ट से चित्रों को
कई-कई आँखों वाले चित्रों को
फिर उन कई-कई आँखों का बारी-बारी
एक साथ मुझे घूरना
घूरकर बताना, परिचय कराना
मेरे मज़बूत होने का और
मेरे असहाय होने का भी
उस बुझी हुई बीड़ी की राख से
धुंए की उठती आखरि लकीर
बता जाती है उसकी कहानी
की बची हुई ज़िन्दगी पर है उसको नाज़
और ख़त्म होने पर है रोष
जो उसमें भी है और मुझमें भी
जो मुझमें भी है और उसमें भी

Sunday, November 21, 2010

मैं भगवान से नफ़रत करता हूँ?

मैं भगवान से नफ़रत करता हूँ?
इतनी नफ़रत?
कहीं ऐसा तो नहीं कि
मुझे भगवान में
बाप, बड़ा भाई
मास्टर-मौलवी
या कि मेरा बॉस नज़र आता है
ऐसा क्या?
अगर यह सच है तो
मेरी अपने भगवान से विनर्म विनती है कि
वो प्लीज़ मेरा बाप, भाई, मास्टर-मौलवी
और मेरा बॉस बनना बंद करे
और हाँ !
बाप, भाई, मास्टर-मौलवी और बॉस से विनती है कि
वो भी प्लीज़ भगवान बनना बंद करे
और मेरे और भगवान के बीच
कांटेदार बड़ा ना बनें
प्लीज़ !
प्लीज़ का मतलब समझते हैं ना?

Sunday, November 7, 2010

रोना चाहता हूँ

एक पल को रोना चाहता हूँ
पता नहीं क्यूँ रोना चाहता हूँ
लेकिन ऐसा न जाने क्यूँ कि
बेवजह ही मैं रोना चाहता हूँ
और ऐसा भी क्यूँ कि
मैं रोने कि वजह चाहता हूँ
आँखों में ख़ुद के मैं आंसूं भी नहीं देखना चाहता हूँ
न जाने क्यूँ फिर भी मैं
रोना चाहता हूँ
हाँ मैं रोना चाहता हूँ
पता नहीं मैं क्यूँ रोना चाहता हूँ

Monday, November 1, 2010

ज़िन्दगी मुझे शिकायत है तुमसे

ज़िन्दगी मुझे शिकायत है तुझसे
तुम वक़्त ही कहाँ देती है जीने का
मिलने का, मिलाने का
मिलकर कुछ दूर साथ चल पाने का
समझने का समझाने का
अपना बनने का और अपनाने का
ज़िन्दगी तू नहीं देती है वक़्त वादा तक निभाने का
ज़िन्दगी मुझे शिकायत है तुमसे