Monday, November 29, 2010

हाथी चला बाज़ार में

बिच्छू मरते दम तक डंक मारेगा
संत डूबते बिच्छू को हर बार किनारे पर लाएगा
चालाक लोमड़ी काले कौए की काएं-काएं को मीठी तान बताएगा
पेड़ का कौआ चालाक लोमड़ी की बातों में आएगा
चोंच खोल कर अपनी रोटी उस के भेंट कर जाएगा

और जब भी कभी मस्तन हाथी अपनी राह चलेगा
टेढ़ी पूंछ वाला कुत्ता भोंकेगा, भों-भों की खड़ताल बजाएगा

कबिरा भी बाज़ार में खड़ा-खड़ा एकतारे की तार छेड़ेगा
हथकरघे पे झीनी-मिनी चादर बनाएगा
फिर इक दिन उसी बाज़ार में मर जाएगा
बाजारू लोग उसकी बोली लगायेंगे
अपना अपना माल बताएंगे
लड़ते-कटते खुद अर्थी-कब्र चढ़ जाएँगे

लेकिन फिर भी बिच्छू डंक मारेगा,
संत बिच्छू की जान बचाएगा
कौआ लोमड़ी की बातों में आएगा
लोमड़ी मज़े से दावत उडाएगा
कुत्ता भौं-भौं कर पूंछ हिलाएगा
और हाथी अकेले ही जानिबे मंजिल को चला जाएगा और
कभी न कभी तो अकेले ही सड़क पार कर पाएगा
पगडण्डी छोड़ जाएगा

Thursday, November 25, 2010

बीड़ी की लाल आँखें

कुचल दो मसल दो उसको
पैरों से मसल दो
ऐसा मैं अधूरी जलती हुई बीड़ी के लिए कहता फिरता हूँ
ख़ुद से नहीं अपने दोस्तों से
सुन कर भी निष्क्रिय से मेरे दोस्त
छोड़ देते हैं उसे वैसे ही फर्श पर
बीचो-बीच कमरे में
और छोड़ देते हैं मुझे निरुत्तरित

प्रशनों की श्रृंखला की कड़िया गिनता
उनकी करुणाती अरुणमई आँखों में
उस अधजली बीड़ी की लाली को देख
एक बार प्रशनों में घिर
उत्तर से परे बंध जाता
ऐसे ही क्यूँ छोड़ दिया, जलता उसे?

उसकी झपकती आँखें झपक कर
बोल जाती
छोड़ दिया उसे जीने को आख़िर के कुछ क्षण
जाने दिया उसे अपनी जीवन की राह पर
सिसकते, घिसटते, विकलांग उसे
मौत और ज़िन्दगी के अंतराल के लिए
छोड़ दिया

ऐसा अक्सर ही बिना सोंचे कहता हूँ मैं
कहकर निरुत्तर सा सोंचता हूँ मैं
और
बीड़ी की जलती, धुआं उगलती लाल-लाल आँखें
चुभने सी लगती है और गड़ती चली जाती है
भीतर, बहुत भीतर
एहसास से बंधता मैं
महसूस करता
बीड़ी का इस तरह आख़िर में जलना
लाल हो जाना
उसकी धीमी लौ का
धडकनों सा धड़कना, धधकना
पल-पल ठहरना
फिर चमकना अँधेरे कमरे के अँधेरे से कोने में
रह-रह कर उसकी सांसों का उखड़ना
और उड़ना धुंए के साथ
घुटना, घटना
बुझने के इंतज़ार में, पल-पल प्रतिपल
साँझ की लाली में रात की कलि सा मिलना
एक लम्बी साँस के साथ
आख़िरकार उसका बुझ जाना
और फिर सीमित हो राख हो जाना

उसकी जलती आँखों के बुझने पर
अनायास ही मेरे अन्दर के खौफ़ का भी बुझ जाना
और जला जाना मेरे अन्दर के उलझे अस्पष्ट से चित्रों को
कई-कई आँखों वाले चित्रों को
फिर उन कई-कई आँखों का बारी-बारी
एक साथ मुझे घूरना
घूरकर बताना, परिचय कराना
मेरे मज़बूत होने का और
मेरे असहाय होने का भी
उस बुझी हुई बीड़ी की राख से
धुंए की उठती आखरि लकीर
बता जाती है उसकी कहानी
की बची हुई ज़िन्दगी पर है उसको नाज़
और ख़त्म होने पर है रोष
जो उसमें भी है और मुझमें भी
जो मुझमें भी है और उसमें भी

Sunday, November 21, 2010

मैं भगवान से नफ़रत करता हूँ?

मैं भगवान से नफ़रत करता हूँ?
इतनी नफ़रत?
कहीं ऐसा तो नहीं कि
मुझे भगवान में
बाप, बड़ा भाई
मास्टर-मौलवी
या कि मेरा बॉस नज़र आता है
ऐसा क्या?
अगर यह सच है तो
मेरी अपने भगवान से विनर्म विनती है कि
वो प्लीज़ मेरा बाप, भाई, मास्टर-मौलवी
और मेरा बॉस बनना बंद करे
और हाँ !
बाप, भाई, मास्टर-मौलवी और बॉस से विनती है कि
वो भी प्लीज़ भगवान बनना बंद करे
और मेरे और भगवान के बीच
कांटेदार बड़ा ना बनें
प्लीज़ !
प्लीज़ का मतलब समझते हैं ना?

Sunday, November 7, 2010

रोना चाहता हूँ

एक पल को रोना चाहता हूँ
पता नहीं क्यूँ रोना चाहता हूँ
लेकिन ऐसा न जाने क्यूँ कि
बेवजह ही मैं रोना चाहता हूँ
और ऐसा भी क्यूँ कि
मैं रोने कि वजह चाहता हूँ
आँखों में ख़ुद के मैं आंसूं भी नहीं देखना चाहता हूँ
न जाने क्यूँ फिर भी मैं
रोना चाहता हूँ
हाँ मैं रोना चाहता हूँ
पता नहीं मैं क्यूँ रोना चाहता हूँ

Monday, November 1, 2010

ज़िन्दगी मुझे शिकायत है तुमसे

ज़िन्दगी मुझे शिकायत है तुझसे
तुम वक़्त ही कहाँ देती है जीने का
मिलने का, मिलाने का
मिलकर कुछ दूर साथ चल पाने का
समझने का समझाने का
अपना बनने का और अपनाने का
ज़िन्दगी तू नहीं देती है वक़्त वादा तक निभाने का
ज़िन्दगी मुझे शिकायत है तुमसे

Sunday, October 31, 2010

पूरी कविता

शब्दों का स्टाक ख़त्म हो गया सा है
अभिव्यक्तियों का का ढेर अवशेष हो गया सा है
हमेशा कि तरह पंक्तियों का मिलना कम हो गया है
ना मिलना पंक्तियों का
और फिर अकस्मात् ही मिल जाना उसका
न मिल पाने का ग़म
और फिर मिल जाने का हर्ष दुर्गम
फिर न मिलने और मिल जाने कि सारी प्रक्रिया
व्यक्त करने को मात्र शब्द
घटते-जुड़ते शब्द
एक शब्द, दो शब्द, दो-दो चार शब्द
फिर उन शब्दों में निहित उनके अर्थ
बनते वाक्य, वाक्या दर वाक्या
बिगड़ते वाक्य, वाक्या दर वाक्या
बनती कविता, बिगड़ती कविता
पूरी कविता
वाक्य दर वाक्य
वाक्या दर वाक्या
ज़िन्दगी भर की कविता
शब्दों से भरी-पूरी कविता
ज़िन्दगी की तरह अधूरी कविता
बढती-घटती पूरी कविता

Wednesday, October 20, 2010

बस एक बार को

तुझे आखरी बार देखने से पहले भी लगा था
कि शायद यह आखरी बार है
कितना वक्फ़ा गुज़र चुका उस आखरी बार को
कुछ घंटे ही बीते हैं अभी
लेकिन मुझे खौफ़ है और मालूम भी है शायद
कि ये घंटे कुछ ही घंटों बाद
दिन, महीनें, साल और सदिओं में बदल जाएँगे
और बदल जाएँगे
मेरे अन्दर बाहर कि मिट्टी को
हवा को और पानी को भी
और बदल जाएगी मेरी ज़मीन भी
पर क्या पता ?
आखरी बार कि तरह
फिर नज़र आओ कहीं
आखरी बार को
बस एक बार को

Saturday, October 16, 2010

तस्वीर- २

जिल्द लगी ज़िन्दगी की किताब पर
खिंची जज़्बातों की
सुर्ख़-ओ-स्याह
आड़ी-तिरछी गोल-चौकोर लकीर
लकीरों के शब्द
शब्दों के चेहरे और चेहरों से शब्द
चुपचाप, ख़ुद को समेटे
अन्दर ही अन्दर
सिमटते, सहमे हुए से शब्द
और शब्दों में क़ैद तस्वीर
वोही तस्वीर
सोंचता हूँ फाड़ दूँ पन्ने को
जिस पर उकेरे हैं मैंने स्याह रोशनाई से शब्द
और बिखेर दूँ हवा में, उड़ने को, शब्दों को सारे
कर दूँ आज़ाद उन्हें, उनकी राह पर
और उघाड़ दूँ, किताब पर लगी जिल्द भी
ख़ुद भी उडू, तैरुं, बह चलूँ
हवाओं की डगर
और जिल्द बन कर मढ़ जाऊं ज़िन्दगी की किताब पर

तस्वीर- १

ख़्वाबों की सजिल्द किताब के
पन्नों को पलटता देखता
आगे-पीछे, एक-एक कर के
बारी-बारी बार-बार
एक बार, हर बार
रुकता
उस पन्ने पर, एक मात्र पन्ने पर
जिसपे उभरी है तुम्हारी तस्वीर
उकेरी है मैंने जिसे
वोही तस्वीर
शब्दों की आँखें
शब्दों के रुखसार
और उन्हीं शब्दों की काजल की लकीर
शब्दों की कशिश
और शब्दों की हंसी
शब्द से शब्द तक, हर वक़्त
मिलती हो तुम
खामोश शब्दों सी

शब्द भी खामोश तेरे
तेरी ख़ामोशी से
अच्छा है शब्द बोलते नहीं
किताबों में बंद रहते हैं
मेरे ही तरह, तुम्हारी तरह
ज़ज्ब रहते हैं
सजिल्द किताबों के पन्ने पर

Thursday, October 14, 2010

इक बारी (खिड़की)

दीवार पर इक बारी बनानी होगी
जो दीवार है इस पार वो मुझे ख़ुद ही गिरानी होगी
झिरायाँ भी मरमरी जालीदार मुझे ख़ुद ही बनानी होगी
पुरानी जो तस्वीर टंगी है दीवारों पे इन, हटानी होगी
धूल जो जम गई है एक स्वास से उड़ानी होगी
धूप भी जिस्म को खुद के ख़ुद मुझे ही दिखानी होगी
जो प्यास है अनजानी उसको पानी तो पिलानी होगी
पोशाक जो पहना है अब तक उसे उतारनी भी होगी
ख़ुद की पहचान को तो मुझे अपनानी होगी
आगे की कहानी भी मुझे ख़ुद ही बनानी होगी
अपनी ज़ात को इस बार ये अदब तो सिखानी होगी
मेरी जान तब ही मुझ पे दीवानी होगी
इक बारी तो इस पार बनानी होगी
दीवार तो अब गिरानी होगी

Wednesday, September 22, 2010

मैं बुनकर जुलाहा

मैं बुनकर जुलाहा हूँ
मुझे रूई दे दो
मैं खुद ही सूत कात लूँगा
कातूंगा, बांटूंगा, बुनुंगा
कपड़े भी मैं खुद बुन लूँगा
बुनुंगा हथकरघे पर
चादर रुपहले
और बनाऊंगा तुम्हारे लिए रत दिन
चादर पीले, कत्थई, लाल, हरे
आरामदेह, मुलायम, सपनों सी
और बटु सूत कि रस्सियाँ भी
मज़बूत-अटूट
खुद सुखी खा, पानी पी लूँगा
पेट पे रस्सी बांध दूंगा
नंगी ज़मीन पे सिकुड़े-सिकुड़े
मए बीबी-बच्चों के रात अँधेरी सो लूँगा
एक पतली चादर ओढ़-ओढ़ कर

मुझे रोज़ी न सही
और रोज़ी का दाम नहीं
काम का लेकिन अंजाम तो दो
कपास दो
मेरे बुनने कि आस तो दो
इक नै आस के बदले मेरी साँस न लो
मेरा करघा, सूत, कपास ना लो
मेरा, मेरे बीबी-बच्चों का आकाश ना लो

ज़िन्दगी कोई गणित है क्या?

ज़िन्दगी कोई गणित है क्या?
कोई फ़ॉर्मूला कि थेओरम है

दो और दो को जोड़ दो, और चार पा लो
दो को दो से भाग दो और एक ले लो
गुणा कर दोगुना, तिगुना या फिर चार गुणा कर लो
घटा-बढ़ा, तोल-मोल कर
ब्याज चढ़ा कर भाव लगालो
ज़िन्दगी कोई गणित है क्या?
एक कविता है शायद
शब्द रहित भाव विभोर कविता
गली, मोहल्ले, चौक चौराहे पे चलने वाला हर ख़ासो-आम काम का थियेटर
अक्षर विहीन किताब है
पन्ना-पन्ना कोरा
शब्द. चित्र, झांकियां सब मेरे
अनिश्चित. अस्थिर
खुलती, बन होती
किताब खुले अगर तो
शब्द हवा में उड़ सके
चित्र पानी में तैर सके
झांकियां ज़मीं पे चल सके
और कोई पढने वाला भी उसको पढ़ सके
तो ज़िन्दगी का हिसाब फल सके
और आगे बात चल सके

ज़िन्दगी कोई गणित है क्या?
कोई फ़ॉर्मूला कि थेओरम है

ज़िन्दगी गणित है- दो

ज़िन्दगी गणित है
समझ नहीं आ रहा यार
कभी एक और एक दो की बजाए एक कर जाती है
तो कभी एक और एक मुझे ही शून्य कर जाती है
सारे फोर्मुले-समीकरण फेल
न जोड़-घटाओ का खेल
न गुणा-भाग का मेल
रेलम-पेल
हवालात-जेल
ना एक्स-वाय की रटन
ना पी-क्यू-आर का जाप
बाप रे बाप
मेरे ही हाथ से पिछवाड़े पे थाप
थप-थपाक
बख्श दे मेरे बाप
छुट्टा नहीं है फिर कभी आना
माफ़ करो आगे बढ़ो
कोई न कोई दे देगा
एक-आध आना
जब देबरा आना तो
आ कर जी भर के तबला बजाना
अभी जाओ
जिंदगी का गणित कभी और सिखाना

ज़िन्दगी गणित है-एक

ज़िन्दगी गणित है
कभी बजाए जुड़ने के घटा जाए ज़िन्दगी
हँसते-हँसते रुला जाए ज़िन्दगी
जोड़, घटाओ, गुणा और भाग में
हर सिम्त भगाए ज़िन्दगी
गोल-गोल दायरे में
मदारी के बन्दर सा नाचाय ज़िन्दगी
खुद से खुद का मजाक बनाए ज़िन्दगी
ज़िन्दगी गणित है भईया
अधूरे को पूरा और पूरे को अधुरा बना जाए ज़िन्दगी
जुड़ते-घटते कट जाए ज़िन्दगी

Tuesday, September 14, 2010

लात मारो आगे बढ़ो

लात मारो आगे बढ़ो
मारो, बढ़िया है, खूब मारो
फुटबाल पे मारो
मोटर साईकिल, स्कूटर के किक को मारो
साईकिल, रिक्शा के पैडल को मारो
रस्ते पे लुढ़कते पत्थर को मारो
दे दना-दन मारो
मारो लेकिन किसी के पेट पे मत मारो
मजदूर के रोज़ी पे मत मारो
किसी इंसान को मत मारो
किसी के जज्बे और जज्बात पे मत मारो
किसी के आरज़ू-अरमान पे मत मारो
किसी के ईमान पे मत मारो

मारो खूब मारो
तबियत से मारो लात
और आगे बढ़ो
चैम्पियन बनो

Thursday, July 29, 2010

उधेड़बुन

हर शाम के बाद सवेरा
लेकिन सवेरे के बाद की शाम
और उससे भी काली रात का क्या ?

हर कली का फूल
लेकिन फूल के मुरझाने का क्या ?
हर बीज का अंकुर, अंकुर का पेड़
लेकिन पेड़ के सूख कर गिर जाने का क्या?

हर युध्ध के बाद शोर
शोर के बाद की चुप्पी
लेकिन इस चुप्पी के बाद के शोर
और फिर से चुप्पी का क्या?

अकेली ज़िन्दगी में साथ
लेकिन साथ के बाद अकेली ज़िन्दगी का क्या ?

शाम-सवेरा, कली-फूल, बीज-अंकुर-पेड़, हरे पत्ते- पीले पत्ते-झाड़ते पत्ते, शोर-चुप्पी, साथ-अकेलापन

क्या है ये ?
एक मकडजाल या उधेड़बुन ?

अँधेरे, ख़ामोशी और अकेलेपन के बीच
फंसा इंसान ।

Wednesday, July 28, 2010

किसने दिखाए सपनें ?

किसने दिखाए सपनें ?
स्वप्नील, सुनहरे, सुन्दर
डरावने, जानलेवा, खूंखार, दमघोटू
क्या तुम्हे खेद है?
सपनों के बदसूरत होने का
सपनों के टूट जाने पर खेद नहीं तुम्हे?
और अगर है भी तो क्या? और क्यूँ?
किसने दिखाए सपने तुम्हे?
पूछता हूँ किसने दिखाए तुम्हे, सपने ?
तो क्यूँ है मातम, सन्नाटा, क्रंदन ?
सपनें सच हो तो अपने
और टूट जाएँ तो पराए
पूछता हूँ किसने देखे सपनें?
उठो और जिओ, हिम्मत है तो
सपनों से आगे उस सच को
जो डरावनी है शायद
लेकिन जिंदा है ।

सपनें देखने के लिए खेद

सपनें बड़े बदतमीज़ होते हैं
ना वक़्त की कद्र
ना जगह, ना संजोग
ना अवसर की परवाह

बेपरवाह सपनें कभी भी
कहीं भी, एक अप्रत्याशित
अपरिचित सेल्समैन की तरह
काल-बेल दबा
डिंग-डोंग की तान छेड़
घुस जाते हैं
पहले सीधे दिमाग
और फिर सरकते-सरकते
क़तरा-क़तरा दिल में

ख़ुद को अपना, क़रीबी, शुभेक्षक बता
लेन-देन का सिलसिला शुरु करते
हम जज़्बात बेंचते और सपने ख़रीदते
जज़्बाती हो जाते
फिर और सपनें
सपनें, सपनें, सपनें
स्वप्नील, सुन्दर, लुभावने, घुमावदार, सीढ़ीदार,
सांप जैसे, सात सरों वाले फुफकारते शेषनाग जैसे
सांप-सीढ़ी का खेल
किस्मत के सांप डंसते
डरावने सपनों से डराते
और रोमांच की सीढियाँ ऊपर जाती
सपनें दिखाती, शेखचिल्ली बनाती
और हम सपनों को फुग्गे सा फुलाते
हांफ-हांफ के फुलाते
फुलाते-फुलाते भड़ाम
या फिर छेद वाले रब्बरदार फुग्गे को
फुलाते जाते हांफते जाते, फुलाते जाते
हांफते, मरते, सपनें देखते
वक़्त आता जब फुग्गे आदत बन जाते
फिर बिना काल-बेल दबाए
फुग्गे वाले आते जाते, अन्दर बाहर, ऊपर-निचे
नींद तोड़, सो जाने को मजबूर करते
और सपनें सो कर हम जब घड़ी पर नज़र करते
और नौकरी पहुँचने में हुई देरी का एहसास कर
सपनों को, नांक पूछे टिश्यु पेपर की तरह
ममोड़ कर डस्ट-बिन में फेंक
भाग-भाग कर भाग-दौड़ में लिप्त हो जाते
और बॉस की ताज़ी झिडकी सुन
सपनों पर खेद जताते और सपनें ना देखने का सपना देख
जुंत जाते
रोज़ी, रोटी, कपड़ा, मकान और जोरू के सपनें में
मस्त सुबह से शाम
और फिर सारी रात
रोज़ सपनें देखते और सपनों पे खेद जताते
काट देते ज़िन्दगी
फिर सपनों की तरह भुला दिए जाते
और श्रधान्जली के खेदमय पुष्पमाल से
हमेशा के लिए अकेले सपनें बुनने को दफ़्न कर दिए जाते
और सपनें
आपके बगल में लेटे खेद जताते
आपके साथ वहीँ दफ़्न हो जाते
हमेशा के लिए

अकेले कमरे में मैं

शाम यूँहीं अपने बुझे कमरे में
बुझा सा मैं, जलने को आंखें मूँद
कुछ सोंचता
आंखें मूंदे अपनी दुनिया को सोंचता
बुझे-बुझे कमरे में
बुझा-बुझा, किए आंखें बंद
सोंचता
बंद आँखों के भीतर और बाहर
उभरती, घूमती आकृतियाँ
कुछ बिलकुल साफ़
कुछ हल्की, धुन्धल्की और कुछ गौण
ज़्यादातर पहचानी
कुछ पहचानी पर अनजानी
आस पास घूमते मेरे परिचित, मेरे दोस्त
अपनी-अपनी सीमाओं की परिधि से बंधे,
सीमित
घूमते, चकराते, मेरे चारो ओर
चकराता मैं
भावनाओं के घुमाव के साथ भंवराता
भावना शुन्य सा घूमता, चकराता

आँखें खोलता फिर मूँद लेता
मूँद लेता आँखें अपनी,
अपने चारों ओर की सच्चाई से
और फिर वही आकृतियाँ
घूमती, इठलाती, चकराती
मेरे आँखों के भीतर-बाहर
बिना दस्तक आती-जाती

ऐसा अक्सर ही होता है
जब अकेला होता हूँ मैं
करने को इसी अकेलेपन को
करता मैं आंखें बंद
और जब खोल बैठता हूँ आंखें
तो और भी अकेले होता हूँ

ये आँखों का खोलना बंद करना, ये सिलसिला
गर ख़त्म हो जाता तो कितना अच्छा होता
मेरे चाहने से सब ख़त्म हो जाए
तो सो सकूं मैं खुली आंखें
सुकून के साथ
और जाग भी सकूं मैं खुली आँख
और न पाले फिर ख़्वाब कोई
भीतर-बाहर, झूठा-सच्चा
और ना हो कोई ख़्वाब झूठा
और जी सकूं मैं
सच्चाई के साथ
अपने आस पास की सच्चाई
ऊपर निचे और दरमियाँ की भी
मेरे होने की और ना होने की भी, सच
मेरा और मेरे कमरे का अकेलापन
जो सच भी है और मेरे साथ भी

तुम्हारी याद में

एक ख़्वाब देखा है मैंने
साथ-साथ, मैं और तुम
सीली काई लगी दीवार से टेक लगाए
हाथों को क़रीब-क़रीब रखे
बिना बात बिलकुल शांत, चुपचाप
चुप्पी समेटे
चाहता हूँ
कुछ देर और यूँहीं
चुपचाप रहूं और
समेट लूँ सारी ख़ामोशी तेरी
तेरे खामोश दिल की धड़कन
तेरे खामोश दिल की आवाज़
और ख़ामोशी से
चला जाऊं कहीं
जहाँ रहूं मैं, सिर्फ मैं और
बातें करती तुम्हारी वो ख़ामोशी
तुम्हारी वही खामोश धड़कन
और साथ रहे सिर्फ
तेरे खामोश दिल की आवाज़
हमेशा
मेरे साथ तुम, सिर्फ तुम

अनाम कविता

टकराना
दोनों की आँखों का
अंधियारे की रौशनी में
टकराना, कुछ देर आपस में, खामोश
बारी-बारी, साथ-साथ
ढूँढना
एक दुसरे की नज़रों में
कुछ, सब कुछ
क्या कुछ?

ना मिल पाना
ढूंढती आँखों के सिवा,
कुछ भी,
एक ख़ालीपन,
कन्फ्यूजन, ना ढूंढ पाने का
उसे चाहती है
दोनों की आंखें
एक दीवार
जिसे देख नहीं पाती
दोनों की आंखें

मेरा पता

अक्सर ही जब कभी
सड़कों को नापता चलता सायकल पे यूंहीं
निकलता हूँ घर से कुछ दूर ही
अनमना अनजाना सा कुछ सोंचता
रफ़्ता दर रफ़्ता, सायकल की रफ़्तार से
चीजों का पास आकर दूर निकल जाना
मेरा रफ़्तार से बहुत दूर सड़क पे निकल आना
पीछे छोड़ते रास्तों, पगडंडियों के सहारे
ज़िन्दगी की सड़क पर, आगे
चौराहा दर चौराहा, चौराहे पर, फिर
आगे बढ़ निकल जाना

अगल बगल के खामोश किनारों पर
बुत बने पेड़ों की क़तार
पथरीली दीवार, भीख मांगता भिखारी
खड़े सड़क के किनारे, रास्ता तकते
सब आते जाते, बेरफ़्तार, रुके हुए से
मेरी रफ़्तार से दूर जाते, खड़े खड़े बुत बने
छोड़ कर आगे बढ़ता मैं, हर रोज़ बदस्तूर

पीछे छूटती सडकें, दरख़्त, चारदीवारियां,
और छूटता मैं, सबसे ज़्यादा, सबसे आगे
पल-पल घटता
पल-पल रिसता
मौसम की नमी सा उड़ता
पत्तों की तरह सूखता, सुख कर झड़ता
पल-पल, हर पल
पेड़, पगडंडियाँ, रास्ते, चारदीवारियां, भिखारी
अपने पते पर ठीक, सबके सब अपने-अपने रास्ते
बदस्तूर रुके खड़े
मेरी रफ़्तार से रफ़्तार मिलाते, चलते
लेकिन, मैं हर रोज़, वहीँ
लापता, गुम
अपने पते की तालाश में
भटकता, गली दर गली
चौराहे पर रुकता, चलता
पते की तालाश में
अनमना, अनजाना, लापता सा
अपने पते पर ।

उन्हें नहीं दिखेगा ।

साढ़े चार फुट का
गठित दुबला शरीर लिए
आँखों में काजल की तीखी कलि लकीर
भंवों को तीर की मानिंद तराशे हुए
किधर चली ?
जिधर चली,
सुबह-सुबह, शहर की भागम भाग में
पलकों पर नीली हल्की धूल,
मोटे अपलक होठों पर
गाढ़ी कत्थई लिपस्टिक लगा
अपने अस्तित्व को लिए
किधर चली?

निखारने अपने सौंदर्य को इन्द्रधनुषी मेकअप से याकि
छुपाने अंतर्मन के दर्द या घावों को
जो भीतर ही भीतर पाक रहा है
बजबजा रहा है ।
अपने माथे पर पड़ी लकीर गहरी
छुपओगी कैसे ? और आँखों के नीचे
पड़ी थकान की रेखाओं को
होटों की फटी दरारों को
कैसे ?

कोई तो देकेगा उस मेकअप सज्जित
कमनीय चेहरे के पीछे का दर्द और घाव ।
देख सकेगा अन्दर का ग़म,
इन झूठी खुशिओं की लीपा पोती
झांकेगा होठों की दरारों से, भीतर गहरा ।

किसे पड़ी है, लेकिन ? ये सब देखने की और
देखने की भी तो ग़म, घाव, परेशानियां
किसका ग़म, किसका घाव, किसकी परेशानियाँ ?
एक औरत की ?
जिसने अभी-अभी ओने चौखट को लाँघ
मेट्रोपोलिटन कैपिटल में
अपने अस्तित्व को परख अजमा रही है

कोई नहीं देखेगा
तुम्हारे अंतर्मन के घावों को
क्यूंकि सब तो मंत्रमुग्ध हैं
तुम्हारे चेहरे की कमनीयता को,
तीखे तराशे भंवों को,
अपलक मोटे होंठों पर लगी गाढ़ी कत्थई
लिपस्टिक देख
और नसों को हिलाने वाली
तुम्हारी तेज़ इम्पोर्टेड
परफ्यूम की गंध सूंघ

नहीं देखेगा, कोई भी नहीं देखेगा ।
नहीं दिखेगा, उन्हें नहीं दिखेगा
नहीं दिखेगा ।

दो मुझे अपना हाथ दो .

मैं कमज़ोर, और
कमज़ोर तुम भी
दो, मुझे अपना हाथ दो
थामने दो,
सहारे के लिए नहीं
साथ के लिए, स्पर्ष लिए

थामे रहो । हमेशा के लिए नहीं
पल दो पल के वास्ते
चलते-चलते, रास्ते दो रास्ते
जब तक,
तब तक
मजबूती का एहसास ना हो

छोड़ दो ।
ज़्यादा निर्भर मत हो

दो, अपना हाथ दो
किसी और को
सहारे के लिए नहीं
साथ के लिए

Tuesday, July 27, 2010

बेवजूद तेरी याद में...

तेरे वजूद में तलाशता खुद को बेवजूद सा मैं
और ग़मों-ख़ुशी में तलाशता अपने आप को लापता सा
भटकता तेरे ज़ेहन के कोने में, दिल के बाहर और भीतर भी शायद

तेरे आँखों से ढलकने को बेचैन मुन्तज़िर आँसू
ढलकते, तुम्हारे रुखों पर बिछ जाते और छोड़ जाते
पहले से भी ज़्यादा नमक
धुल जाती तुम्हारी आत्मिक संरचना, तुम्हारा मन
निर्मल, पहले से भी ज़्यादा साफ़
और घुल जाती सारी परछाईयाँ
जानदार परछाईयों के साथ बेजान पल
घुल जाते

मैं पास बैठा वहीँ दूर से तकता चुपचाप सब कुछ
न जाने किसके इंतजार में
और अपने खुरदरे उंगलिओं से
तुम्हारे गीले आँखों को गर्मी देता
तुम्हारे अश्कों को छूता, सोंखता अपने अन्दर
और खुद भी सूखने लगता
गीला हो जाता
और तुम्हारे नमक को समेटने कि चाह में
बार-बार उन अश्कों को छूता, सोंखता, सूखता
गीला-गीला निर्जान सा तुम्हारे इर्द-गिर्द
तुम्हारे मन को छूने की लालसा में
ख़ुद ही ख़ुद में सालता
और उदासीन, चला जाता शुन्य में दूर कहीं
और कोशिश करता उन चमकते नमकीन अश्कों की बूंदों में
तलाशने की, अपने आप को, अपने चेहरे को
और अश्कों पर लिखी इबारत को पढ़ते-पढ़ते मिटने लगता
और आंसुओं में अपनी परछाई को सूखता देख
सूखने लगता
फिर तुम्हारे नमक को समेटते-समेटते
ख़ुद सिमट मिट जाता
तुम्हारे शांत होने का इंतजार करता
और शांत हो
तुम मेरा हाल पूछती
तो शांत होकर भी, मेरा वजूद अशांत हो जाता
प्रशांत सा उफनता
मेरे वजूद को बहा, तेरे वजूद से दूर करता
और एक बार फिर, तुम्हारे बिना, अकेला
बेवजूद हो जाता
तुम्हारी याद में .

आवाजें .

आँखें बंद किए मैं
सुनता रहा आवाजें
चप्पलों के ज़मीन से टकराने की आवाजें
तलवों और जूतों की भी
आती आवाजें
जाती आवाजें
ठहरी आवाजें
आकर लौट जाती आवाजें
लौट कर फिर से वापस आती आवाजें
नज़दीक होती तेज़ आवाजें, बहुत तेज़
दूरी के साथ मध्धम आवाजें
आकर
दूर हो गईं
ठहरती आवाजें
गुज़रती आवाजें
चीखती आवाजें

और इन आवाज़ों के पीछे
चुप्पी
बहुत तेज़, एकसुर, एकसार, चीख-चीख के कह रही हैं
कि आवाज़ों से परे
उसकी दुनिया में ख़ामोशी से आगे
विरोधाभास भरी एक ज़िन्दगी.

मैं सुरक्षित क्यूँ हूँ ?

सुना है किसी को कहते
सब के सब, पूरी दुनिया असुरक्षित है
किस्से, कहानियां, कविताएँ
सब के सब असुरक्षित

बागों कि कालियां असुरक्षित
मोहल्ले कि गलियां असुरक्षित
किताबों की परियां असुरक्षित

माओं की गोद असुरक्षित
और अम्मा की लोरियां भी असुरक्षित

शब्द असुरक्षित
शब्दों के अर्थ असुरक्षित
चित्र असुरक्षित
चित्रों के रंग असुरक्षित
इतिहास असुरक्षित
विज्ञानं असुरक्षित
इन्सां का ज्ञान असुरक्षित

मस्जिदों की अजां असुरक्षित
मंदिरों की आरती
तो गुरूद्वारे की गुरवान असुरक्षित

इन्सां की जान असुरक्षित
पहचान असुरक्षित
सम्मान असुरक्षित

सब कुछ है असुरक्षित !
लेकिन मैं ?

मैं सुरक्षित कैसे और क्यूँकर हूँ ?
कहीं यह विचार मात्र तो नहीं ?

कैनवास.

धूलों के कैनवास पे
उंगलिओं से उकेरी आकृतियों से भरी
ज़िन्दगी के साथ मोटी होती धुल की परतें
परत दर परत, परतदार धूलों सी
बारीक, घिसी, पिसी हुई

कभी हवाओं ने तो
कभी ख़ुद की ही सांसों ने
उड़ाया है
और मिटाया भी है ख़ुद ही
ख़ुद की उंगलिओं से उकेरी आकृति
प्रत्येक आकृति
छोटी- बड़ी, छोटी से छोटी
और फिर बैठ गया ख़ुद ही
हटाने मिटाने
वो सब
जो धुल भरा दिखता है

और हटाते मिटाते
छुट जाते हैं कुछ निशान
अजीब से निशान
ना समझ आने वाले निशान
बेमाने से निशान
कुछ अनजाने से निशान
और फिर ख़ुद में ही विस्मित सा
उठ बैठ गया
इक अपनी सी पहचान को
जुज़रते वक़्त के साथ
इंतजार में
कि कोई हवा तो चले शायद
और जमा दे फिर से धुल सारी
कोना कोना धुल
कैनवास
ख़ाली कैनवास
बना सकूँ एक बार फिर
आकृतियाँ
नई पुरानी
अपनी
रौशनी और परछाइओं से भरी
धुल भरे कैनवास पे

सागर के तिरछे कोने पर सूरज .

सागर के तिरछे कोने में सूरज
शाम का सूरज और भोर का भी
बुझा जला
उबले अंडे की पीली ज़र्दी
गोल
लाली कुछ कम कम है
लगता है कवी ने कविता की लाल सियाही में सोडा वाटर ज्यादा मिला दिया है
और चित्रकार ने लाल रंग में पानी कुछ ज्यादा मिलाया है
याकि अपने ब्रुशों को पानी में कुछ देर तक डुबोया है

भोर के बाद दिन के साथ
लाली गम हो जाएगी और चमक उठेगी
चकाचौंध-ओझल
शाम ढलने पर
एक बार सूरज फिर लाल होगा
फीका, पनियाला लाल
और दे जाएगा सुकून

सोंच
पनियाते रंग का और गंदली धुंध का भी
एक बार फिर
सुबह तक .

जाग रहा हूँ .

जाग रहा हूँ मैं
जगा रहा हूँ ख़ुद को मैं
इक गहरी नींद से पहले
इक हमेशा की ख़ामोशी से पहले
अस्तित्व को ख़ुद अपने ही शोर से जगा रहा हूँ मैं
मोम की रौशनी से अंधियारे की कालिख को
घटा-मिटा रहा हूँ मैं
गिर्द की अँधेरी को भगा रहा हूँ मैं
वक़्त के साथ ख़ुद घट रहा हूँ
और जल भी रहा हूँ शायद
रिस कर ख़ुद अपने जिस्म पे टपक रहा हूँ मैं
जग रहा हूँ और उनींदा ख़ुद को जगा रहा हूँ मैं
सो न जाऊं कहीं सो
ज़िन्दगी के गीत बेआवाज़ ही गुनगुना रहा हूँ मैं
ज़िन्दगी को वक़्त के साथ ख़ुद
बिना रुके, रुक-रुक कर
पहिये सा भगा रहा हूँ मैं
जाग रहा हूँ रातों के बीच और
ख़ुद को जगा रहा हूँ मैं
अब तक जाग रहा हूँ मैं .

Thursday, July 15, 2010

बोनसाई

बोनसाई-
एक पेड़ गमले के भीतर
काटो- उसकी मोटी जड़ को, काटो
हर उस बढती हुई टहनी को
जिससे लगता हो की
वह पेड़ सम्पूर्ण हो जाएगा, सम्पूर्ण-
जो कम की हों उन्हें बढ़ने दो
बढ़ने दो
तार से बांध दो-
ताकि
ज़रुरत के मुताबिक, जब चाहो
अपने अनुसार मोड़ सको-
ना-ना यूरिया अधिक नहीं, डालो
लेकिन ज़रुरत से थोडा कम-
नहीं भी डालोगे तो चलेगा उसका कम-
डरो मत बोनसाई तैयार हो जाएगा-
दो-एक डेढ़ साल के पेशेंस के बाद
आपके मुताबिक हो सकेगा-
अथक इंतज़ार और लगन के बाद
सारी मेहनत वसूल-
तारें जिसका वह आदि है
अब बना, बोनसाई
ड्राविंग रूम की, चार दिवरिओं की,
शोभा, बनेगा आपकी इज्ज़त- माली का नाम-
लेकिन इसका नाम ?
इसका नाम ? बोनसाई तो बोनसाई होता है
और हाँ इसकी कोई इज्ज़त भी नहीं होती
इसका कुछ भी अपना नहीं होता- होता है
तो यह सिर्फ आपका-
आख़िरकार
माली सोचता है
उसने उस पेड़ को दे दी है
एक नई जिंदगी
पर क्या वाकई ?

मेरी कविताओं के सफ़र का पहला स्टेशन

चार कोस की दुनिया है
भागूं तो किधर भागूं
चार कोस के बाहर भागूं
यानि की दुनिया से बाहर भागूं