Sunday, October 31, 2010

पूरी कविता

शब्दों का स्टाक ख़त्म हो गया सा है
अभिव्यक्तियों का का ढेर अवशेष हो गया सा है
हमेशा कि तरह पंक्तियों का मिलना कम हो गया है
ना मिलना पंक्तियों का
और फिर अकस्मात् ही मिल जाना उसका
न मिल पाने का ग़म
और फिर मिल जाने का हर्ष दुर्गम
फिर न मिलने और मिल जाने कि सारी प्रक्रिया
व्यक्त करने को मात्र शब्द
घटते-जुड़ते शब्द
एक शब्द, दो शब्द, दो-दो चार शब्द
फिर उन शब्दों में निहित उनके अर्थ
बनते वाक्य, वाक्या दर वाक्या
बिगड़ते वाक्य, वाक्या दर वाक्या
बनती कविता, बिगड़ती कविता
पूरी कविता
वाक्य दर वाक्य
वाक्या दर वाक्या
ज़िन्दगी भर की कविता
शब्दों से भरी-पूरी कविता
ज़िन्दगी की तरह अधूरी कविता
बढती-घटती पूरी कविता

Wednesday, October 20, 2010

बस एक बार को

तुझे आखरी बार देखने से पहले भी लगा था
कि शायद यह आखरी बार है
कितना वक्फ़ा गुज़र चुका उस आखरी बार को
कुछ घंटे ही बीते हैं अभी
लेकिन मुझे खौफ़ है और मालूम भी है शायद
कि ये घंटे कुछ ही घंटों बाद
दिन, महीनें, साल और सदिओं में बदल जाएँगे
और बदल जाएँगे
मेरे अन्दर बाहर कि मिट्टी को
हवा को और पानी को भी
और बदल जाएगी मेरी ज़मीन भी
पर क्या पता ?
आखरी बार कि तरह
फिर नज़र आओ कहीं
आखरी बार को
बस एक बार को

Saturday, October 16, 2010

तस्वीर- २

जिल्द लगी ज़िन्दगी की किताब पर
खिंची जज़्बातों की
सुर्ख़-ओ-स्याह
आड़ी-तिरछी गोल-चौकोर लकीर
लकीरों के शब्द
शब्दों के चेहरे और चेहरों से शब्द
चुपचाप, ख़ुद को समेटे
अन्दर ही अन्दर
सिमटते, सहमे हुए से शब्द
और शब्दों में क़ैद तस्वीर
वोही तस्वीर
सोंचता हूँ फाड़ दूँ पन्ने को
जिस पर उकेरे हैं मैंने स्याह रोशनाई से शब्द
और बिखेर दूँ हवा में, उड़ने को, शब्दों को सारे
कर दूँ आज़ाद उन्हें, उनकी राह पर
और उघाड़ दूँ, किताब पर लगी जिल्द भी
ख़ुद भी उडू, तैरुं, बह चलूँ
हवाओं की डगर
और जिल्द बन कर मढ़ जाऊं ज़िन्दगी की किताब पर

तस्वीर- १

ख़्वाबों की सजिल्द किताब के
पन्नों को पलटता देखता
आगे-पीछे, एक-एक कर के
बारी-बारी बार-बार
एक बार, हर बार
रुकता
उस पन्ने पर, एक मात्र पन्ने पर
जिसपे उभरी है तुम्हारी तस्वीर
उकेरी है मैंने जिसे
वोही तस्वीर
शब्दों की आँखें
शब्दों के रुखसार
और उन्हीं शब्दों की काजल की लकीर
शब्दों की कशिश
और शब्दों की हंसी
शब्द से शब्द तक, हर वक़्त
मिलती हो तुम
खामोश शब्दों सी

शब्द भी खामोश तेरे
तेरी ख़ामोशी से
अच्छा है शब्द बोलते नहीं
किताबों में बंद रहते हैं
मेरे ही तरह, तुम्हारी तरह
ज़ज्ब रहते हैं
सजिल्द किताबों के पन्ने पर

Thursday, October 14, 2010

इक बारी (खिड़की)

दीवार पर इक बारी बनानी होगी
जो दीवार है इस पार वो मुझे ख़ुद ही गिरानी होगी
झिरायाँ भी मरमरी जालीदार मुझे ख़ुद ही बनानी होगी
पुरानी जो तस्वीर टंगी है दीवारों पे इन, हटानी होगी
धूल जो जम गई है एक स्वास से उड़ानी होगी
धूप भी जिस्म को खुद के ख़ुद मुझे ही दिखानी होगी
जो प्यास है अनजानी उसको पानी तो पिलानी होगी
पोशाक जो पहना है अब तक उसे उतारनी भी होगी
ख़ुद की पहचान को तो मुझे अपनानी होगी
आगे की कहानी भी मुझे ख़ुद ही बनानी होगी
अपनी ज़ात को इस बार ये अदब तो सिखानी होगी
मेरी जान तब ही मुझ पे दीवानी होगी
इक बारी तो इस पार बनानी होगी
दीवार तो अब गिरानी होगी