Wednesday, September 22, 2010

ज़िन्दगी कोई गणित है क्या?

ज़िन्दगी कोई गणित है क्या?
कोई फ़ॉर्मूला कि थेओरम है

दो और दो को जोड़ दो, और चार पा लो
दो को दो से भाग दो और एक ले लो
गुणा कर दोगुना, तिगुना या फिर चार गुणा कर लो
घटा-बढ़ा, तोल-मोल कर
ब्याज चढ़ा कर भाव लगालो
ज़िन्दगी कोई गणित है क्या?
एक कविता है शायद
शब्द रहित भाव विभोर कविता
गली, मोहल्ले, चौक चौराहे पे चलने वाला हर ख़ासो-आम काम का थियेटर
अक्षर विहीन किताब है
पन्ना-पन्ना कोरा
शब्द. चित्र, झांकियां सब मेरे
अनिश्चित. अस्थिर
खुलती, बन होती
किताब खुले अगर तो
शब्द हवा में उड़ सके
चित्र पानी में तैर सके
झांकियां ज़मीं पे चल सके
और कोई पढने वाला भी उसको पढ़ सके
तो ज़िन्दगी का हिसाब फल सके
और आगे बात चल सके

ज़िन्दगी कोई गणित है क्या?
कोई फ़ॉर्मूला कि थेओरम है

No comments:

Post a Comment