Thursday, November 25, 2010

बीड़ी की लाल आँखें

कुचल दो मसल दो उसको
पैरों से मसल दो
ऐसा मैं अधूरी जलती हुई बीड़ी के लिए कहता फिरता हूँ
ख़ुद से नहीं अपने दोस्तों से
सुन कर भी निष्क्रिय से मेरे दोस्त
छोड़ देते हैं उसे वैसे ही फर्श पर
बीचो-बीच कमरे में
और छोड़ देते हैं मुझे निरुत्तरित

प्रशनों की श्रृंखला की कड़िया गिनता
उनकी करुणाती अरुणमई आँखों में
उस अधजली बीड़ी की लाली को देख
एक बार प्रशनों में घिर
उत्तर से परे बंध जाता
ऐसे ही क्यूँ छोड़ दिया, जलता उसे?

उसकी झपकती आँखें झपक कर
बोल जाती
छोड़ दिया उसे जीने को आख़िर के कुछ क्षण
जाने दिया उसे अपनी जीवन की राह पर
सिसकते, घिसटते, विकलांग उसे
मौत और ज़िन्दगी के अंतराल के लिए
छोड़ दिया

ऐसा अक्सर ही बिना सोंचे कहता हूँ मैं
कहकर निरुत्तर सा सोंचता हूँ मैं
और
बीड़ी की जलती, धुआं उगलती लाल-लाल आँखें
चुभने सी लगती है और गड़ती चली जाती है
भीतर, बहुत भीतर
एहसास से बंधता मैं
महसूस करता
बीड़ी का इस तरह आख़िर में जलना
लाल हो जाना
उसकी धीमी लौ का
धडकनों सा धड़कना, धधकना
पल-पल ठहरना
फिर चमकना अँधेरे कमरे के अँधेरे से कोने में
रह-रह कर उसकी सांसों का उखड़ना
और उड़ना धुंए के साथ
घुटना, घटना
बुझने के इंतज़ार में, पल-पल प्रतिपल
साँझ की लाली में रात की कलि सा मिलना
एक लम्बी साँस के साथ
आख़िरकार उसका बुझ जाना
और फिर सीमित हो राख हो जाना

उसकी जलती आँखों के बुझने पर
अनायास ही मेरे अन्दर के खौफ़ का भी बुझ जाना
और जला जाना मेरे अन्दर के उलझे अस्पष्ट से चित्रों को
कई-कई आँखों वाले चित्रों को
फिर उन कई-कई आँखों का बारी-बारी
एक साथ मुझे घूरना
घूरकर बताना, परिचय कराना
मेरे मज़बूत होने का और
मेरे असहाय होने का भी
उस बुझी हुई बीड़ी की राख से
धुंए की उठती आखरि लकीर
बता जाती है उसकी कहानी
की बची हुई ज़िन्दगी पर है उसको नाज़
और ख़त्म होने पर है रोष
जो उसमें भी है और मुझमें भी
जो मुझमें भी है और उसमें भी

1 comment:

  1. Namskar
    its not only poem even this is reality of our life.Poem ka 'Shirsak'jabrdast hai.

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