एक
अजीब है न शायद
कि जिसे सबसे ज्यादा जाना
वो था इक अफसाना
दो
यूँ कहना की मैंने उसे जाना नहीं
समझा नहीं
माना नहीं
क्या इनका कोइ पैमाना नहीं
तीन
वो यूँही आया
और गुज़र गया इक सफ़र सा
इक नज़र में, चंद पहर में
कोहरे में ढके सहर सा
सच ! गुज़र गया
चार
कहते हैं आईने में जो दिखता है
करीब से दिखता है
पर आइना जो दिखाता है बहुत दूर का दिखाता है
गूढ़ सा
दिखाता है
पांच
पात्रों के मुखौटे में
मंच पर हर शख्श ओझल
नाटक ख़त्म होने का इंतज़ार
और ज़रा उनसे भी हो जाए आँखें चार
फिर पात्र-परिचय, आचार-व्यवहार
और खुल कर आए नेपथ्य का संसार
तब शायद बुझ पड़े कहानी का सार
hmmm..good..tumhari tareef karne ka dil toh nhi karta par phir bhi acha tha toh kar diya ab jyada failna mat ispe..poem hi achi hai tum nhi :P
ReplyDeleteWah bhai sahab... wah...
ReplyDeletegood one Nadim Bhai......
ReplyDelete