Thursday, October 14, 2010

इक बारी (खिड़की)

दीवार पर इक बारी बनानी होगी
जो दीवार है इस पार वो मुझे ख़ुद ही गिरानी होगी
झिरायाँ भी मरमरी जालीदार मुझे ख़ुद ही बनानी होगी
पुरानी जो तस्वीर टंगी है दीवारों पे इन, हटानी होगी
धूल जो जम गई है एक स्वास से उड़ानी होगी
धूप भी जिस्म को खुद के ख़ुद मुझे ही दिखानी होगी
जो प्यास है अनजानी उसको पानी तो पिलानी होगी
पोशाक जो पहना है अब तक उसे उतारनी भी होगी
ख़ुद की पहचान को तो मुझे अपनानी होगी
आगे की कहानी भी मुझे ख़ुद ही बनानी होगी
अपनी ज़ात को इस बार ये अदब तो सिखानी होगी
मेरी जान तब ही मुझ पे दीवानी होगी
इक बारी तो इस पार बनानी होगी
दीवार तो अब गिरानी होगी

1 comment:

  1. Amazing poem,,gud work nadim,,just one drawback i found..dnt try much for riming..though the essence which u want to speak,,we all can smell.
    Gud job once again.

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