Saturday, June 9, 2012

लाल सलाम परचम लाल

ये कहानी है एक सफ़ेद चादर की
जिसके नीचे फलते थे इन्सां
खेलते थे बच्चे
चहकती थी चिड़िया
खिलती थी कलियाँ
उड़ती थी खुशबु सब के लिए

वोही सफेदी थी पहचान उनकी

फिर इक दिन हुआ क़त्ल
बलात्कार
ज़ुल्म-ओ-अत्याचार
इन्सां के इन्सां से अव्वल-अफज़ल बनते

इन्सां बटे
और बांटी  फिर  जंगल
ज़मीन, खेत, खलिहान
और पहचान

कारख़ाने बने, भट्टियाँ जली
पसीना बहा, जिस्म जला, हड्डियाँ गली

वह दिन भी आया
जब सफेदी बटी
और तकसीम हुए माओं के आँचल
और वो सफ़ेद चादर का इक टुकड़ा
जो बूढी अम्मां का आँचल बना,
बाप का तकिया बना,
वैध का पट्टी-मलहम भी बना

और ज़ख्मों का लहु पोंछ-पोंछ कर
हो गया लाल
और हाँथ भी अम्मा का रंग गया
हो गया अपने ही बच्चों के खूं से लाल

और आख़िर बना लिया उसे
उठ्ठा लिया मजलूमों ने
परचम लाल

और फिर ढ़ोल बजा, नक्कारा पिटा
नारा बना लाल सलाम !
मजदूरों के  नाम, माओं के नाम,
कोख में पलते बच्चों के नाम

बढ़ गए खोने को जंजीरें
सब के सब
होने लगे एक रंग
मजदूरों के नाम, मजलूमों के नाम
लाल सलाम परचम लाल

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