Sunday, June 26, 2016

पंखीड़ा रे - 3

डर लगता है
पंख खोलूँ और
टूट न जाये पिंजड़ा कहीं
पिंजड़ा टूटे और टूट न जाये सपना कोई
छूट न जाये अपना कोई
डर लगता है

पिंजड़ा अब अपना लगता है
अम्मा का अंचल जगता है
चुग्गे का दाना लगता है

डर लगता है ! डर लगता है !
ओ रे पंखिडे, हे सोंच ज़रा
पिंजड़े का मोह तुझको क्या फबता है?
पिंजड़े में भी कोई सपना, क्या कर कर पलता है?

खुले गगन में, तारों की नगरी में पलता है

इक अंगड़ाई तो ले, तू गर्दन को उठा और पंख खोल
उड़ चल अब पिंजड़े को तोड़
और अंबर अंबर गूंजे तेरी आज़ादी के बोल 

No comments:

Post a Comment