पहली बार हॉस्टल जाते वक़्त
चौदह साल की उम्र, दोपहर का वक़्त और ट्रेन का सफ़र
अलमुनियम की हांड़ी की कालिख के काजल का टीका
मल दिया था बाजी ने बाजु पर और
अम्मी ने हर बला से बचे रहने की दुआ के साथ
विदा कर दिया था ज़िन्दगी की डगर
अगली ही सुबह
क्लास जाने के होड़ में
होस्टल के तेज़ शावर और रेक्सोना के झाग के साथ
मिट कर बह गया काजल का टीका
और बह चला मैं भी
आज इतने बरसों बाद
वो ओझल काला टीका
जज़्ब हैं कहीं अन्दर
अन्दर, गाढ़ा और चट्टान सा
जिस्मों-जान में
अपनी पूरी तासीर के साथ
सच-मुच
अब तक आगे ही तो बढ़ा हूँ मैं
बहुत ख़ूब।
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