Tuesday, July 27, 2010

जाग रहा हूँ .

जाग रहा हूँ मैं
जगा रहा हूँ ख़ुद को मैं
इक गहरी नींद से पहले
इक हमेशा की ख़ामोशी से पहले
अस्तित्व को ख़ुद अपने ही शोर से जगा रहा हूँ मैं
मोम की रौशनी से अंधियारे की कालिख को
घटा-मिटा रहा हूँ मैं
गिर्द की अँधेरी को भगा रहा हूँ मैं
वक़्त के साथ ख़ुद घट रहा हूँ
और जल भी रहा हूँ शायद
रिस कर ख़ुद अपने जिस्म पे टपक रहा हूँ मैं
जग रहा हूँ और उनींदा ख़ुद को जगा रहा हूँ मैं
सो न जाऊं कहीं सो
ज़िन्दगी के गीत बेआवाज़ ही गुनगुना रहा हूँ मैं
ज़िन्दगी को वक़्त के साथ ख़ुद
बिना रुके, रुक-रुक कर
पहिये सा भगा रहा हूँ मैं
जाग रहा हूँ रातों के बीच और
ख़ुद को जगा रहा हूँ मैं
अब तक जाग रहा हूँ मैं .

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