Tuesday, July 27, 2010

कैनवास.

धूलों के कैनवास पे
उंगलिओं से उकेरी आकृतियों से भरी
ज़िन्दगी के साथ मोटी होती धुल की परतें
परत दर परत, परतदार धूलों सी
बारीक, घिसी, पिसी हुई

कभी हवाओं ने तो
कभी ख़ुद की ही सांसों ने
उड़ाया है
और मिटाया भी है ख़ुद ही
ख़ुद की उंगलिओं से उकेरी आकृति
प्रत्येक आकृति
छोटी- बड़ी, छोटी से छोटी
और फिर बैठ गया ख़ुद ही
हटाने मिटाने
वो सब
जो धुल भरा दिखता है

और हटाते मिटाते
छुट जाते हैं कुछ निशान
अजीब से निशान
ना समझ आने वाले निशान
बेमाने से निशान
कुछ अनजाने से निशान
और फिर ख़ुद में ही विस्मित सा
उठ बैठ गया
इक अपनी सी पहचान को
जुज़रते वक़्त के साथ
इंतजार में
कि कोई हवा तो चले शायद
और जमा दे फिर से धुल सारी
कोना कोना धुल
कैनवास
ख़ाली कैनवास
बना सकूँ एक बार फिर
आकृतियाँ
नई पुरानी
अपनी
रौशनी और परछाइओं से भरी
धुल भरे कैनवास पे

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