Wednesday, July 28, 2010

अकेले कमरे में मैं

शाम यूँहीं अपने बुझे कमरे में
बुझा सा मैं, जलने को आंखें मूँद
कुछ सोंचता
आंखें मूंदे अपनी दुनिया को सोंचता
बुझे-बुझे कमरे में
बुझा-बुझा, किए आंखें बंद
सोंचता
बंद आँखों के भीतर और बाहर
उभरती, घूमती आकृतियाँ
कुछ बिलकुल साफ़
कुछ हल्की, धुन्धल्की और कुछ गौण
ज़्यादातर पहचानी
कुछ पहचानी पर अनजानी
आस पास घूमते मेरे परिचित, मेरे दोस्त
अपनी-अपनी सीमाओं की परिधि से बंधे,
सीमित
घूमते, चकराते, मेरे चारो ओर
चकराता मैं
भावनाओं के घुमाव के साथ भंवराता
भावना शुन्य सा घूमता, चकराता

आँखें खोलता फिर मूँद लेता
मूँद लेता आँखें अपनी,
अपने चारों ओर की सच्चाई से
और फिर वही आकृतियाँ
घूमती, इठलाती, चकराती
मेरे आँखों के भीतर-बाहर
बिना दस्तक आती-जाती

ऐसा अक्सर ही होता है
जब अकेला होता हूँ मैं
करने को इसी अकेलेपन को
करता मैं आंखें बंद
और जब खोल बैठता हूँ आंखें
तो और भी अकेले होता हूँ

ये आँखों का खोलना बंद करना, ये सिलसिला
गर ख़त्म हो जाता तो कितना अच्छा होता
मेरे चाहने से सब ख़त्म हो जाए
तो सो सकूं मैं खुली आंखें
सुकून के साथ
और जाग भी सकूं मैं खुली आँख
और न पाले फिर ख़्वाब कोई
भीतर-बाहर, झूठा-सच्चा
और ना हो कोई ख़्वाब झूठा
और जी सकूं मैं
सच्चाई के साथ
अपने आस पास की सच्चाई
ऊपर निचे और दरमियाँ की भी
मेरे होने की और ना होने की भी, सच
मेरा और मेरे कमरे का अकेलापन
जो सच भी है और मेरे साथ भी

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